SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुर्वशिनीटीका अ० २ सू० ११-१२ मृपावादीना जीवातकवचननिरूपणम् २२१ खनिपतीन् कथयन्ति । तथा ' पुप्फनिर्हि फलविहिं च साहे ति मालियाण ' पुष्पविधि फलनिधिं च = पुष्पजाति फलजाति च साधयन्ति मालिकाना = वनपाल कानाम्, 'अग्यमहुरोसए य साहेति त्रणचराण' अर्धमधुकोशका साधयन्ति वनचराणा=अथ = मूल्पप्रमाण मधुकोशका = मनुत्पत्तिस्थानानीत्यर्थमधुकोशकास्वान् वनचराणां = मिलान् प्रति कथयन्ति ॥ ११ ॥ पुनरप्याह - 'जता ' इत्यादि । मूलम् - जंताई बिसाइ, मूलकम्म आहेवण- आविधण आभिओग - मंतोस हिप्पओगे चोरिय परदारगमणबहुपावकम्मकरणं अवक्खदेगामघायणं, वणदहणतडागभेयणए बुद्धिविसय बसीकरणमाइयाइ भयमरण किलेसुव्वेगजणयाइ भाववहुस किलिट्ठके उत्पत्तिस्थानों को करते हैं । तथा (पुष्पविहिं फलविरिं च सार्हेति मालियाण ) जो माली होते हैं उन्हें ये पुष्पजानि, फलजाति समजाते हैंअर्थात्- ' बागमें अमुक जातिका फुल लगाओ, अमुक जाति के फल उत्पन्न करो ' इस प्रकार से कहा करते हैं । ( अग्धमहुकोसए य साति वणचराण ) तथा जो वनचरभील हैं उनसे ये इस प्रकार कहते हैं कि तुम शहद या शहद का छाता ही ले आया करो अमुक मूल्य तुम्हें मिल जावेगा बैठे २ क्या करते रहते हो। मृषावाद पाप करने वाले जीव जीवों को बाघा आदि पहुँचे इसका थोड़ा सा भी ध्यान नहीं रखते हैं, तथा जो जीवों को कष्ट पहुंचाने वाले मनुष्य है उन्हे हर एक प्रकार से जीवों को कष्ट पहुँचाने मे उकमाया करते है || सू ११ ॥ माहिना उत्पत्ति स्थानो तावे तथा " पुप्फनिहि फलविहिं च साहति मालियाण " भाजीगोने पुष्यन्नति तथा इणन्नति जता घे, भेटले " આગમા અમુક જાતિમા ફૂલ ઉગાડા, અમુક જાતિના ફળ ઉત્પન્ન કરી ” એ પ્રકારની સલાહ આપે છે. ' अग्वमहुकोसए य सार्हेति वणचराण " तथा वनभा ईश्नाश ભીલાને તે આ પ્રમાણે કહે છે “ તમે મવ અથવા મવપુડા લાવ્યા કરે तभने भुज्भित भजशे-अभस्ता मेसी र शु वणशे ? " કરનાર વ્યક્તિ જીવાને કષ્ટ આદિ પહેાચરો તેનુ સહેજ પણ ધ્યાન રાખતી નથી, તથા જીવાને ફઇ પહેચાડનાર જે માણસો હોય છે તેમને દરેક પ્રકારે बवाने -" होयाउवा ने श्रेछे । सू-११ ॥ મૃષાવાદ પાપ
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy