SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ܪܕ सुदर्शिनी टीका ० १ सू० ३२ यातनाप्रकारनिरूपणम् 'जायणाहि ' यातनाभि =कदर्शनाभिः ' जाइज्जताण' यात्यमानाना = दण्डय - मानाना 'नेरहयाण ' नैरचिकाणा=नारकजीवानां च उभयेषामित्यर्थः, 'अणिट्टो ' अनिष्टः - अमीविकारकः 'णिग्घोसो' निर्घोषः - महानादः 'सुब्बा' श्रयते॥० ३१ ॥ कास्ता यातना ? इति यातना प्रकारमाह - ' किं ते ' इत्यादिमूळम् कि ते ? असिवण- दग्भवण-जतपत्थर - सूइतलक्खारवावि-कलकलतवेयरणि- कलववालुया - जलियगुहनिरंभणं उसिणोसिण --- कटइल - दुग्गमरहजोयण- तत्तलो हम ग्गगमण वाहणाणि ॥ सू० ३२॥ टीका- ' किं ते ' कास्ता यातनाः ? उन्यते - ' असिवण' असिवनं= खद्गाकारपत्रनन, 'दव्भवण' दर्भवन =दर्भाः - तीक्ष्णमुरवातृणविशेपास्तेपा वन, गोयराण) परमधार्मिकों का तथा (तहिय ) वहा ( जायणारि ) पातनाओं द्वारा (जाइज्जताण ) दण्डयमान ( नेरहयाण ) नारकियों का ( अणिट्टो ) अनिष्ट ( णिग्घोसो) निर्घोष - शब्द उन नरकों में (सुब्बए) सुना जाता है ॥ ३१॥ अब सूत्रकार पूर्वोक्त यातनाओं के प्रकारों को प्रकट करते है' किं ते ' इत्यादि । टीकार्य - प्रश्न -- (किं ते) वे यातनायें फोन २ हैं ? उत्तर—वे यातनाएँ इस प्रकार हैं ( असिवण- दग्भवण-जतपत्थर सुइतल - खारचावि - फलकलतवेयरणि-कलन वालुया - जलियगुहनिरुमण ) अम्न और अम्बरोप परमाधार्मिक उन नारकियों को (असिवण ) तलवार की धार के आकार वाले पत्रो के वन में ( दग्भवण ) मेवो, “निरयगोयराण" परभाषाभिओन तथा " तहिय" त्या "जायणाहि" यातनाओ। वडे "जाइज्जता " शिक्षा सहन रा नेरइयाण " नारडीओोनो "अणिट्टो" अनिष्ट निवेष-राण्ड, ते नरोभा " सुव्वए " सलजाय छे ॥ ३१ ॥ 66 वे सूत्रार पूर्वथित यातनाओना अमर बताये -“कि ते १४त्याहि टीर्थ- 66 - प्रश्न किं ते?" ते यातनाओ हुयी थी ? ઉત્તરતે યાતનાએ આ પ્રમાણે હાય છે " असिवण, दभवण, जतपत्थर, सूइतल, क्सारवावि, कलस्लतवेयर णि, फलन वालुया, जलियगुह, निरुमण " शुभ् भने सभ्णरीष નામના પરમા धाभि। ते नारी कवीने "असिनण" तसवारी धार वा मारना पत्रोना वनभा, "दव्भवण" तीक्ष्य मालीवाजा हल विशेधोना वनमा “जत पत्थर' यत्र
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy