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________________ प्रश्नव्याकरसूने -विश्रोद्वेगजनकेषु तत्र महोप्णाः अत्यन्तोष्णाः, सदा मतप्ताम् निरन्तरतापयुक्ताः, दुर्गन्धा =अनिष्टगन्धयुक्ताः, विश्रा अपयरमासात्पूर्विगन्धाः, अतए-उद्वेगजनका-उद्वेगोत्पादकाः, तेषु 'बीभच्छदरिसणिज्जेसु' बीभत्सदर्शनीयेपु-धृणितदर्शनेपु 'निच्च' नित्य 'हिमपडल्सीयलेसु' हिमपटलशीतलेपु-हिमपटल मिव शीतला ये ते तथा तेषु 'कालोभासेमु' कालायभासेपु, काला-श्यामलोऽत्रभासः कान्तिपेपा ते तथा तेपु कृष्णवर्णेषु 'भीमगमोरलोमहरिसणेमु' भीमग म्भीरलोमहर्पणेपु-तत्र,भीमा:=भयजनका गभीराः-अतलस्पर्शा अतएव कोमहर्षणा रोमाञ्चकारिणस्तेपु-तत्स्वरूपश्रयणमात्रेण-रोमाञ्चोत्पादकेपु ‘णिरभिरामेसु ' निरभिरामेपु = अशोभनेपु 'निप्पडियारवाहिरोगजरापीलिएस' निप्पतिकार व्याधिरोगजरापीडितेपु-निष्पतिकारा प्रतिकाररहिता व्याधया कुष्ठादयः रोगा रहते हैं । (दुग्गध विस्सउन्वेयजणगेसु) अनिष्टतर दुर्गध से भरपूर रहते है। विस्र-कच्चेमास के जैसी यहा सदा दुर्गंध आती रहती है, इसलिये नारकियो को ये सदा उद्वेग के उत्पादक होते रहते है। (बीभ च्छदरिसणिजेसु य) देखने में ये बड़े असुहावने घृणित प्रतीत होते है । (निच्च हिमपडलसीयलेसु) सदा ये हीमपटल के जैसे शीतल होते हैं (कालोभासेसु) इनकी काति काली होती है। (भीमगभीरलोमहरिसणेसु) इन नरकावासों मे जीव को सदा भय ही भय रहता है। ये आवास कितने गहरे है इनका पता नही पड़ता है । इनके स्वरूप श्रवण मात्र से ही जीवों के शरीर में रोमाच खडे हो आते है। (णिरभिरामेसु) ये सब अशोभन हैं। (निप्पडियार पाहिरोगजरापीलिएसु) यहा की जो कुष्ठ आदि व्याधिया है, मस्तकशूल आदि जो रोग हैं,वार्धक्य जो तेसा नि२२ तथा व्यास ४२ , “दुग्गधविस्सउव्वेयजणगेसु" सौथी ખરાબ દુર્ગધથી ભરપૂર રહે છે વિસ-કાચા માસના જેવી દુર્ગધ ત્યા સદા આવ્યા કરે છે, તેથી નારકીઓને તેઓ સદા સતષ પિદા કરનારા હોય છે बीभच्छ दरिसणिज्जेसु य" नेपामा ते घn १ मेडा-! थाय तवा डाय “निच्च हिमपडलमीयलेसु" ते सहा मिना थ। नेपाशीत डाय कालो भासेसु" तेया मावे खाय छे “ भीमगभीरलोमहरिसणेस" તે નરકવાસોમાં જીવેને સદા ભય જ રહે છે તે આવા કેટલા ઊંડા છે તેની ખબર પડતી નથી તેના સ્વરૂપનું વર્ણન સાભળતાજ જીવેના શરીરના शोभाय GHt Ram छ “णिरभिरामेसु" ते १ मा बिना "निप्पडियारबाहिरोगजरापालिएसु" मानी 30s मा २ व्याधिय। ..
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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