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________________ १४० ঘক্ষণে अरुचिकरेपित्यर्थः, 'फामेनु स्पर्शपु सभ्य', 'मन्नेमु अन्येषु च बहुवि हेसु' बहुविधेपु ' एवमाइएसु' एपमादि के पु-~-पर प्रकारेषु ' कावडगुममीय उसिणलरखेनु' कर्कशगुमशीतोष्णरक्षेपु कगा: कठिनागुरवः-माराः, शीताः शीतला, उप्णाम् तापनाः, रूक्षा परुगा, पपा बन्नस्तेयु वयोक्तेषु पत्रेषु च 'समणेण ' श्रमणेन-साधुना 'न रसियन' न रोष्टन्यम्-रोपो न कर्तव्य इत्यर्थ , न हीलिया' न हीलितव्यम् अमना न कर्तव्या, 'न निंदियन 'न निन्दि तव्यम् , समनसि निन्दा न कर्तव्या, 'न घिसियन्त्र' न खिसितव्यम् परसमक्षे च निन्दा न कर्तव्या, 'नछिदियान छत्तव्यम् हेदन न कर्तव्यम् । 'न मिदियनं ' न भेत्तव्यम्-भेदन न कर्तव्यम् , 'न वहेया' न हन्तव्यम्-विनाशो न कर्तव्यः, तथा-वद्विपये ' जुगुलावत्तियागि' जुगुप्साटतिकाऽपि स्वस्य परस्य वा हदि 'उप्पाएउ' उत्पादयि तु 'न लभा' नलभ्या-नोचिता यया पूर्वोक्तस्पनों -अयरिपये स्वस्य परस्य वा हदि जुगुणा मादर्भचेन तथा कर्तव्यमिति भावः। अमणुन्नपावगेस्लु ) उन अमनोजपापक-अचिकारक-स्पर्शो में, तथा (एवमाइएस्सु पहुविहेसु कम्पगुम्सीय उसिणलाखेसु)दन से भिन्न और जो कर्कश, गुरु, शीत, उण, रूक्ष स्पर्श है उनमें (समणेण न रुसियव्य, न हीलियन्च, न निंदियन्ध, न गरहियव्य, न खिप्तियब, न छिंदियन्व, न भिदियन्च, न वहेयन्व, न दुगुवत्तियावि लभाउप्पाएउ साधु को रुष्ट नहीं होना चाहिये, उनकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये। निंदा नहीं करनी चाहिये । गर्दा नहीं करनी चाहिये। उन पर खिस याना नहीं चाहिये । उस अमनोज स्पर्श के आश्रयभूत द्रव्य का छेदन नहीं करना चाहिये । भेदन नहीं करना चाहिये । नाश नहीं करना चाहिये । और न अपने तथा परके मन में उनपर ग्लानि उत्पन्न करने समनोज्ञ ५.५४-२२थि।२४ २५ मा, तथा ' एमाइएसु बहुविहेसु कक्खडगुरुसीयउसिणलुक्खेसु" ते रात भीत ५२ , शुरु, शात, Ge, २५श छे तभना प्रत्ये “समणेण न रुसियन्त्र, न हीलियव्व न निदियव्य, न गरहियव्य , न सिसियव्य, न किंदियध, न मिंदियव्य, न, वहेयन्त्र दुगु छापत्तिया वि लम्मा उप्पाएउ" साधुरी २८ यधु-नये नही, तमना એવહેલને ન કરવી જોઈએ નિ દા ન કરવી જોઈએ ગોં ન કરવી જઈ આ તેમના પર ખિસિયાવું જોઈએ નહી તે અમને સ્પર્શવાળા દ્રવ્યનું છે કરવું જોઈએ નહી, ભેદન કરવું જોઈએ નહી નાશ કરે જોઈએ નહી અને પિતાના કે અન્યના મનમાં તેમના પ્રત્યે તાનિ ઉત્પન્ન કરવાની પ્રવત્તિ ને
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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