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________________ ८९६ प्रभम्याकरण यच ' न मोहितव्यम्-तत्र मोहो न कर्तव्य इत्यर्थः, तथा-'रिणिवाय' विनिघातः तदर्थ चारित्रभ्रशः, आपज्जियन्त्र' आपनव्या कर्तव्यात्पर्यः, तथा-'न लुमियन्त्र 'नरोधव्यम् लोभो न कर्तव्य इत्यर्थ , ' न तुमिययन तोप्टव्यम्मनोज्ञशब्दादिपु प्रसन्नमनसा न भाव्यमित्यर्थः, तथा-'न हसियन्च 'न हसि-- तव्यम्-विस्मयेन हासो न कर्तव्यः, तथा-श्रमणः 'तत्य तत्र-मनोनभद्रकशन्द विपये ' सइ ' स्मृति-स्मरण च ' मड' मति-धुद्विनिवेश च न कुज्जा' न कुर्यात् । 'पुणरवि य' पुनरपि चामनोनादि शब्दपिपये प्रोन्यते- सोइदिएण' योत्रेन्द्रियेण ' सोचा ' श्रुत्वा · सदाइ' गन्दान् कीदृशान् ? ' अमणुष्णपावगाउ' अमनोज्ञपापकान-अमनोज्ञा. अमनोहरा अतए-पापका अशुभास्तान् 'कि ते' ललचाना नहीं चाहिये, (न मुज्झियन) उनमे मोर नरी करना चाहिये, (न विणिघाय आवज्जियव्य ) उनके निमित्त अपने चारित्र को भ्रष्ट नहीं करना चाहिये, (न लुभियन्त्र) उनमें लुभाना नहीं चाहिये, (न तुसियन्व) उनसे प्रसन्नमन नहीं बनाना चाहिये, (न ह सियव्य ) हसना नहीं चाहिये, और (न सइ च तत्यकृज्जा) न उन मनोज्ञशब्दादिकों की याद करना चाहिये और न उनमें अपनी बुद्धि को ही लगाना चाहिये। इसी प्रकार (पुणरवि य) फिर (सोइ दिएण) श्रोत्र इन्द्रिय से (अमणुण्णपावगाइ ) अमनोज्ञ अतएव अरुचि कारक अशुभ (सदाइ) शब्दों को (सोच्चा ) सुनकर साधु का कर्तव्य है कि वह उन पर देष भी न करे-नाक मुंह न सिकोडे, इसी विषय को अब सूत्रकार इन पक्तियो द्वारा स्पष्ट करते हैं-वे कौन से है इस शंका के समाधान ७२३ नो से ससयान नही "न मुझियव्व " तभनामा मोड ४२वे नये नही 'न विणिधाय आवजियव्व" तमना निभित्ते पाताना यारित्रने भ्रष्ट ४२९ नये नही, "न लुभियव्य"तमा सयान से नडी "न तुसियव्य" तभा भनने प्रसन्न रावु नये नही "न हास यव्व " इस नो नही, मने "न सइ च मई ज तत्य कुज्जा" त મનોજ્ઞ શબ્દાદિકોને યાદ કરવા જોઈએ નહીં અને તેમાં પોતાના મનને यावा हेयु नही' से प्रमाणे 'पुणरवि य" जी 'सोइदिएण" श्रोत्र न्द्रियथी " अमणुण्णपावगोइ " मभनाश भने ते २ मयिडा२४ अशुभ " साह" शण्होने “ सोच्चा" सामजान तना प्रत्ये द्वेष ५ न ४२३॥ જઈએ તે સાધુનું કર્તવ્ય છે-તેના તરફના તિરસ્કારથી નાક કે મેઢ સંકોચ બગાડવું જોઈએ નહી, એ જ વિષયને સૂત્રકાર આ પક્તિઓ દ્વારા સ્પષ્ટ કરે છે તે કયા કયા પ્રકારના છે તે શ કાના નિવારણના માટે તેઓ તે અમ
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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