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________________ सुदर्शिनी टीका म०५० ५ सयताचारपालकस्य स्थितिनिरूपणम् ८७२ 'चाई ' त्यागी मर्वसङ्गत्यागात् , 'लज्जू' लज्जापान-मयमी 'धण्यो' धन्यः - सम्यगज्ञान सम्यग्दर्शनसम्यक्चारित्ररूपधन भयोग्यत्वात् , 'तवस्सी' तपस्वी अगस्ततपोयुक्तत्वात् , ' सतिमयमे ' शान्तिक्षम = कल्यादि सामर्थ्य सत्यपि क्षान्त्या-क्षमागुणेन क्षमते-सहते यः स तथोक्तः, तथा-'जिईदिए ' जितेन्द्रियः, ' सोहिए ' गोधित -शुद्धः - क्षालितमिथ्यात्वादिमिमलत्वात् , ' अणियाणे ' अनिदान:-निदानार्जितः, 'पहिलेम्से ' अबहिर्लेश्य - 'अ' अविद्यमाना नदिः सयमाद् सहि लेश्या अन्त. करणवृत्तिः, यम्य सोजहिर्लेश्यः, सयमान्त करण इत्यर्थः, तथा 'अममे' अमम'-ममत्ववर्जित , ' अकि(चाई ) सर्व सग का परित्याग कर देने से वह त्यागी कहलाने लगता है । (लज्जू) लजावान बन जाता है-वह सदा इस बात का ध्यान रग्वता है कि कहीं ऐसी प्रवृत्ति मुझसे नयन जावे जो सयम मार्ग के विरुद्ध होकर मुझे लजाने वाली हो। ऐसा वह सयमी (धण्णा) सम्यक् ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक चारित्र स्प धन लाभ के योग्य हो जाने के कारण धन्य माना जाता है । तया (तवस्सी)प्रशस्ततपों को आचरित करने वाला होने से तपस्वी कहलाने लगता है, तथा (खतिस्खमे ) लब्धि आदि रूप सामर्यसपन्न होने पर भी बइ क्षमागुण से सब कुछ सहने वाला स्वभाव बन जाता है। इस तरह (जिइदिए ) जितेन्द्रिय, (सुद्ध) मित्यात्वादि कर्ममलक्षालित होने से शुद्ध (अणियाणे ) निदान से रहित, (अहिलेस्सो) अपहिर्लेश्यसयमयुक्त अन्तः करण वाला (अममे) ममता से रहित ( अकिंचणे) थाय छे त्या चाई" सर्प सपना त्याग गाथी ते त्यागी बापा सा छ " लज्जू" ते मरथी तथा महारथी हीना स२० नय છે અથવા લજજાવાન બની જાય છે તે હમેશા તે વાતની કાળજી રાખે છે કે મારાથી કદાચ એવી પ્રવૃત્તિ થઈ ન જાય કે જે સયમ માર્ગની વિરૂદ્ધ जापान ४ो मारे AM ५ सेवा ते सयभी “धण्णो" सभ्यज्ञान, સમ્યક્ દર્શન, અને સમ્યક ચારિત્રરૂપ ધનલાભને યોગ્ય થઈ જવાને કારણે धन्य भनाय छे तथा “ तबस्सी" प्रशस्त तो उ२ना डावाथी तपस्वी उडे वावा हा छ, तथा “तिम्खमे" Aध माहि३५ सामथ्र्य युक्त डापा છતા પણ તે સમાગુણથી બધું સહન કરવાની વૃત્તિવાળો થઈ જાય છે આ शत “जिइ दिए" Graन्द्रिय, “ सुद्ध" भिरवाह भभजन सय थाने २) शुद्ध, “ अणियाणे " निहानथी हित, "अवहिलेस्सो" समडिसश्यसयभी मात २५पाणे “ अममे" ममताथी २डित, “ अकिंचणे" मध्यन
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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