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________________ ८६७ सुदर्शिनी टीका अ५ सू०४ कल्पनीयमशनाविनिरूपणम् 'सणिहिकय ' सनिधीकृत न इन क्ल्पते-परिग्रहविरतत्वात्तस्य। अथ यत्कल्पते तदाह-'जपि य ' यदपि च किञ्चित् 'समणस्स' अमणस्य 'सुविहियस्स तु ' मुनिहितस्य शोभनाचारसतस्तु, 'पडिग्गह गारिम्स' पतद्ग्रहधारिणः =पानधारकस्य 'भायणभडोवहि उपकरण पडिग्गही 'भाजनभाण्डोपध्युपकरण पतद्ग्रहः, तत्र-भाजनम् उन्दकम् , भाण्ड जापानम् , उपधिववादिः, तप यत् उपकरणम् सामग्री, तथा-'पडिग्गहो' पतद्ग्रहः भोजनपात्र 'भाइ' भवति । तथा-'पायरधणपाय केमरियापाययण च ' पानमन्धनपान केसरिका पानस्थापन च, वन-पानसत्यन= झोली ' इति भापा प्रसिद्धम् , पात्रकेसरिकापानप्रमाणिका, पारस्थापन-यन वस्त्रसण्डे पान स्थाप्यते तत् , एपा समाहार द्वन्द्व , 'विष्णि य' त्रीणि च ' पडलाइ ' पटलानि-उपर्युपरिपातरक्षणसमये पात्रपरिरक्षणा पागाभ्यन्तररक्षगीयानि उसखण्डानि, तपा-'रचयाण' रजत्राण= परिग्रह विरत साधु को ( सनिहिकय ) सग्रह के रूप में अपने पास रखना (न कप्पड ) नही कल्पता है। उस परिग्रहविरत सायु के लिये अपने पास क्या २ वस्तुएँ रखना कल्पता है ? सो सूत्रकार उन्हें बताते है-(ममणस्स मुविहियस्स उ पडिग्गधारिस्स) पानधारी उस सुविहित शोभनाचारसपन्नश्रमण-साधुके पास (जपि य ) जो भी (भाय णभडोवहि उवगरणपडिग्गहो भवह ) भाजनउन्दक, भाड-जलपात्र, उपधि-वस्त्रादिरूप उपकरण, तथा पतदग्रह भोजन पात्र हैं ये, तथा(पायरधणपायकेसरिया पायवण च ) पायधन-झोली, पात्रकेसरिका-पात्रप्रमाजिका, पात्रस्थापनवस्त्र, तथा (तिष्णियपडलाइ)तीनप. टल-ऊपर ऊपर पात्रों को रखने के समय उन पात्रों की रक्षा के लिये पात्रों के भीतर रखे हुए तीन वस्त्र खड, (रयत्ताण) जलपान ढकने भयन३५मा पातानी पासे रामवा "न कप्पइ" पता नथी व परिश વિત સાધુને માટે પિતાની પાસે થી કયી ચીજે ગાખવી કપે છે? તે તે सूत्रधार ७ छ" समणास सुविहियरस उ पडिग्गधारिस्स" पात्रवारीते सुनिखित सहायारयुक्त माधुनी पासे "पिय' २ "भायण भढोवहि उवगरणपडिगहो भवइ " alti-Grds, मा3-४ , ७५धि-साहि३५ 645२Y, तथा तह-मासन यात्राय तथा 'पायव धण पायकेसरिया पायट्ठवण घ" पात्रमधन-जणी, पात्रमरिक पात्र प्रमति , पान्थापन व तथा "तिण्णयपडलाइ" त्रपटस-पात्राने मे मीनी 6५२ भूपाने मते ते पात्रानी खाने भाट पात्रानी वये गयेव न पश्नम, " रयत्ताण "
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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