SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 515
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५.० ___ जम्बूद्धीपप्रमतिले । कथितास्ते तदपेक्षया ऋद्धिविचारणायामुत्क्रमतो महद्धिका ज्ञातव्या इति एकादशं द्वारम् ।। सम्प्रति द्वादशं द्वारप्रश्नमाह-'जंबुद्दीवेणं' इत्यादि, 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खल भदन्त ! द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'ताराए य ताराए य' ताराया स्तागयाश्च एकतारापेक्षयाऽपरतारायाः 'केवइयाए भवाहाए अंतरे पन्नत्ते' कियत्या-कियत्प्रमाणकया अबाधया अवाधया अन्तरं प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दुविहे वाघाइए य निव्याघाइए य' द्विविध-द्विप्रकारकम् अन्तरं प्रज्ञप्तम् तद्यथा-व्याघातिक निर्व्याघातिकं च, तत्र व्याघातः पर्वतादि देशेभ्यः स्खलनम् तत्रभवं व्याघातिकम्, निर्व्यापातिकं व्याघातिका निर्गतं स्वाभाविक मित्यर्थः "निवाघाइए जहपुणेणं पंच घणुसयाई उक्कोसेणं दो गाउयाई तत्र द्वयोरन्तरयोर्मध्ये यत् निर्व्यापातिकं तद जघन्येन पञ्चधनुः शतानि उत्कर्षेण द्वे गव्यूते, एतत् जगत्स्वभावादेव ज्ञातव्यम् इति । 'वाघाइए जहण्णेणं दोणि छावहे जोयणसए' तयोर्द्वयोरन्तरयो मध्ये यत् व्यापातिक मन्तरं द्वीप में एक तारा से दूसरे तारे का 'केवइयाए अबाहाए अंतरे पन्नत्ते' कितना अन्तर कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! दुविहे वाघाइए य निव्वाघाइए य' हे गौतम ! अन्तर व्याघातिक ओर नियोधितक के भेद से दों प्रकार का होता है जिस अन्तर में-बीच में पर्वतादिकों का पड जाना होता है वह व्याघातिक अन्तर और जो अन्तर इस व्याघात से रहित होता है अर्थातू स्वा. भाविक होता है वह निर्व्याघातिक अन्तर है 'निव्याघाइए जहण्णेणं पंचधणुस. याई उक्कोसेणं दो गाउयाई' इनमें जो व्याघात विना का अन्तर है वह कम से कम पांचसौ धनुष का है और अधिक से अधिक दो गव्यूत का है यह जगत्स्वभाव से ही हुआ जानना चाहिये 'वाघाइए जहण्णेणं दोण्णि, छावटे जोयणसए' व्याघातिक जो अन्तर है वह दो सौ ६६ छियासठ योजन का है यह जघन्य की अपेक्षा अन्तर कहा गया है और निषधकूट की अपेक्षा लेकर कहा गया है मेराथी मी त 'केवइयाए अवाहाए अंतरे पन्नत्ते' नुयुमन्तर ममापायी वामां मायु छ ? उत्तरमा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! दुविहे वाघाइए य निवाघाइए य' 8 गौतम ! અન્તર વ્યાઘાતિક અને નિર્વાઘાતિના ભેદથી બે પ્રકારનું કહેવામાં આવેલ છે. જે અન્તરમાંવચમાં પર્વતાર્દિકનું પડી જવાનું થાય છે તે વ્યાઘાનિક અખ્તર અને જે અન્તર આ व्याथातथी २हित य छ-अर्थात् स्वाविहाय छे ते निव्याधाति मन्तर छ 'निव्वाघाइए जहण्णेणं पंच धणुसयाई उक्कोसेणं दो गाउयाई' मामा २ व्याधात नुमन्तर છે તે ઓછામાં ઓછું પાંચસો ધનુષ્યનું છે અને વધુમાં વધુ બે ચૂતનું છે. આ HEARINथी । ये युवु नये. 'वाघाइए जहण्णेणं दोण्णि छावट्टे जोयणसए' વ્યાઘાતિક જે અન્તર છે તે ૨૬૬ બસે છાંસઠ જનનું છે આ જઘન્યની અપેક્ષા અન્તર કહેવામાં આવ્યું છે અને નિષધકૂટની અપેક્ષા લઈને કહેવામાં આવ્યું છે આનું તાત્પર્ય
SR No.009347
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages569
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size46 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy