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________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १० इन्द्रच्यवनानन्तरीयव्यवस्थानिरूपणम् .. तेन प्रथमपञ्छक्तिस्थितचन्द्रसूर्यमण्डलानामेतावान् तापक्षेत्रस्यायामो विस्तारश्च भवति; एक स्मात् पर्यादपरः सूर्यो लक्षयोजनस्यातिकमे भवति तेन लक्षयोजनप्रमाणउक्त इति । ..'सयसाहस्सियाहि' शतसाहतिकाभिः-लक्षप्रमाणाभिः 'वेउब्धियाहिं' वैकुंचिताभिः वैक्रियलब्ध्या संपादितामिः 'परिसाहि' पर्षद्भिः 'महयाहयणदृ जाव' भुंजमाणा' महता. हत, नृत्यगगीतवादित्रतन्त्रीतलतालत्रुटितघनभृदङ्गपटुवादितरवेण दिव्यान् भोगंभोगोन् भुधानाः ते चन्द्रादयः 'मुहलेस्सा' मुखलेश्याः अत्र सुखलेश्यति विशेषणं चन्द्रस्यैव योग्य वात् तेन नातिशीततेजसो मनुष्यलोकइव शीतकालादौ, एकान्ततः शीतरश्मयो नेत्यर्थः मन्दछेश्याः, एतच्चविशेषणं सूर्य प्रति, तेन नात्युष्णतेजसो मनुष्यलोकइव निदाघसमये । एतके बाद प्रथम चन्द्र सूर्य पङ्क्ति है इसके बाद एक योजन आगे जाने पर दूसरी चन्द्र सूर्य पंक्ति है इस कारण प्रथम पंक्ति में रहे हुए चन्द्र सूर्य मंडलों का इतनी तापक्षेत्र का आयाम और विष्कम्भ होता है एक सूर्य से दूसरा सूर्य' एक योजन के अतिकम करने पर आता है इस कारण एक लाख योजन का.. तापक्षेत्र का विष्कम्भ कहा गया है ..ये चन्द्रादिक एक लाख की संख्यावाले तथा विश्ववित अनेक प्रकार के रूपों को धारण करने वाले ऐसे आभियोगिक कर्मकारी देवसमूहों के द्वारा चंडे.. जोर जोर से ताडित किये गये नाटय गीत एवं वादित्र वादन कार्य में-त्रिविध सङ्गीत के समय में-तंत्री तल ताल, त्रुटित, घन,मृदंग इन सब बाजों की ध्वनि , पूर्वक दिव्य भोगों को भोगते हैं। ये चन्द्रादिक लुखलेश्यावाले होते है 'यहां'सुखलेश्या' यह विशेषण योग्य होने से चन्द्र के ही लागू होता है इससे मनुष्यलोक की तरह ये शीतकाल आदि में आति शीत तेज वाले नहीं होते हैं अर्थात् एकान्त से शीतरश्मि वाले नहीं होते हैं। 'मंदलेश्या, यह विशेषण પછી બીજી ચન્દ્ર સૂર્ય પંક્તિ છે. આ કારણથી પ્રથમ પંક્તિમાં રહેનારા ચન્દ્ર-સૂર્ય મંડળને આટલા તાપક્ષેત્રને આયામ અને વિશ્કેલ હોય છે. એક સૂર્યથી બીજે સૂર્યએક એજનને અતિક્રમ કરવાથી આવે છે. આ કારણથી એક લાખ જન ત ક્ષેત્રને , વિખંભ કહેવામાં આવેલ છે. એકલાખ જેટલી સંખ્યાવાળા એ ચન્દ્રાદિકે તેમજ વિકર્વિત અનેક પ્રકારના રૂપે ધ રણ કરનારા એવા આલિયેશિક કર્મકારી દેવ સમૂહો વડે ખૂબજ જોર-શોરથી તાડિત ; કરવામાં આવેલા ના, ગીત તેમજ વારિત્રવાદન કાર્યમાં ત્રિવિધ સંગીતના સમયમાં ' al del, aa, त्रुटित, धन, मृदा मे मा पाधोनी पनि हिय मागान मागवे छे. २५ यन्द्र सुभश्यामडीय छ. सही 'सखलेश्य' मा विशेष योग्य व महस ચન્દ્રોને જ એ લાગુ પડે છે, એથી મનુષ્યલકની જેમ એ શીતકાય આદિમાં અતિશીત Havin त नथी अर्थात महतथी शीतभिवाणा हातानथी. 'मंदलेश्य' मा विशेष!
SR No.009347
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages569
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size46 MB
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