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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ५ गमामहानयाः निर्गम-स्पर्शनादिनिरूपणम् ५७ दशगुणन्वान् 'मुडे' मुखे सगुद्रप्रवेशे 'यासटि जोयणाई' द्वापष्टिं योजनानि 'अद्ध जोयणं च' अद्ध योजनम् योजनस्याई च 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण विस्तारेण 'सकोसं सक्रोश सपाद 'नोयणं उवदेणं' योजनम् उद्धेन गाम्भीर्येण, सार्द्धद्वापष्ट्रियोजनपरिमिनसमुद्रप्रवेशव्यासस्य पञ्चाशत्तमभागे एनावन एप समुपलभ्यमानन्यान 'उभो उभयोः द्वयोः 'पासिं' पार्श्वयोः तटयोः 'दोहिं पउममग्वेश्याहिं' द्वाभ्यां पदगवर येदिकाभ्यां 'दोहिं वनरांडे हिं' द्वाभ्यां वनपण्डाभ्यां 'संपरिक्वित्ता संपगिक्षिप्त पग्नेिष्टिनाऽग्ति, अत्र 'वेडया वणगंडवणी' वेदिकायनाम्खण्डवर्णकः पद्मनग्वेदिका बसण्टवर्णन करपदममहो 'माणिययो' मणितव्यः वक्तव्यः, स च क्रमेण चपनमाभ्यां नगाभ्यां बोध्यः ।। अथ गद्गागा आयाम'दीनि मिथुनयां प्रदर्गयितुमाल-गवं सिंधृण बि' इत्यादि-एवं' एवं गद्गामानघाटर 'सिंधए नि सिन्ध्याः मिन्ध नारा महान्या अपि म्यसप 'णेयच्छ' नेतव्यं ज्ञानवियतां प्रापणीयं ज्ञातव्यामि यथः, 'जाव' यागत् एन-एदं 'तोरणेन' इन्यनन्तरं महानदी जिस स्थान से निकल का बरती प्रारम्भहोती है वह प्रबह-पद्मद के तोरण से हमने निर्गमन वा स्थान- झोन अधिक योजन का विष्कम्भ की अपेक्षाले । अनि छ योजनमा उलका विस्तार है और इसका उद्वेधगहगई आध कोगका है उसके बाद-गंगाप्रपात कुण्ड से निकलने के बाद वह महानदी गंगा काम २ से प्रतिपार्य में ५-५-धनुप की वृद्धि करती हुई-अर्थात् दोनों पार्य में १० धनुष की वृद्धि करनी हुई जहां वह समुद्र में प्रवेश करती है वह स्थान विष्कम्भ की अपेक्षा ६॥ोजन प्रमाण हो जाती है और १॥ योजन का वहाँ का उध हो जाता है यह गंगा अपने दोनों तटों पर दो पद्मवरवेदि काओं से और दो बनपण्टों से परिक्षिप्त है यहां वेदिका और बनपण्डों का वर्णन चतुर्थ एवं पंचम दत्रों से-जान लेना चाहिये (एवं मिप वि णेयव्व) गंगामहानदी के आयाम आदिकों की तरह सिन्धु महानदी के आयामादि को भी जानना चाहिये (जाव नस्म णं पउयहहरस पच्चस्थिमिल्लेणं तोरणेणं, सिंधु લાગે છે તે પ્રવહ-પદયાના તેરણધી એનું નિધન સ્થાન–એક ગાઉ અધિક દ એજન પ્રમાણે વિઠંભની અપેક્ષાએ છે અર્થાત્ . 3 જન એટલે આ વિસ્તાર છે, અને આની ઊંડાઈ-(૬) અર્ધા ગાઉ જેટલી છે. ત્યાર બાદ ગંગા પ્રપાત કુંડમાંથી નીકળીને પછી તે મહા નદી ગંગા અનુક્રમે પ્રતિપાર્શ્વમાં ૫-૫ ધનુષ જેટલી વૃદ્ધિ કરતી એટલે કે અને પાર્વેમાં ૧૦ ધનુષ જેટલી વૃદ્ધિ કરતી જ્યાં તે સમુદ્રમાં પ્રવેશે છે, તે સ્થાન વિષ્કભની અપેક્ષાએ દરા જન પ્રમાણુ થઈ જાય છે અને લોજન એટલે તે સ્થાનને ઉધ થઈ જાય છે. એ ગંગા પિતાના બન્ને કિનારાઓ ઉપર બે પદમપર વેદિકાઓથી અને બે વનખંડથી પરિક્ષિત છે. વેદિકા અને વનખંડનું વર્ણન ચતુર્થ તેમજ પંચમ सूत्रामयी on A नग'एवं सिंधूप वि णेयव्यं' in मसानहीन मायाम पोरनी
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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