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________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १ जिनजन्माभिषकवणनम् पन्ति समवहत्य विक्षिप्य पुनक्रियसमुद्घातपूर्वकं संवर्तकवातान विकुर्वन्ति इति 'विउव्वित्ता' विकुळ 'तेणं सिवेणं मउएणं मारुएर्ण' तेन तत्कालविकुक्तेिन शिवेन उपद्रवरहितकल्याणमपेन, मृदुकेन भूमिसर्पिणा मारुतेन वायुना 'अगुद्धएणं भूमितलविमलकरणेणं 'मणहरेणं, अनुद्धतेन अनूर्ध्वगामिना भूमितलविमलकरणेन-पृथिवीतलस्वच्छकारिणा मनोहरेण मानसरञ्जनकारकेण 'सयोउ मसुरहि कुसुमगंधाणुबासिएणं पिंडिमणिहारिमेणं गंधुद्धएणं तिरिक्ष पवाइएणं' सर्व ऋतुकसुरभिकुसुमगन्धानुवासितेन पिण्डिमनिहारिमेण गन्धोद्धरेण तिर्यक प्रवातेन तत्र सर्वऋतुकानां षड् ऋतु समुत्पन्नानां सुरभिकुसुमानां सुगन्धितपुष्पाणां गन्धेन अनुवासितेन पिण्डिम:-पिण्डितः सन् निहारिमो-दूरं निर्गमनशीलो यस्तेन तथाभूतेन गन्धेन उद्धरेण बलिष्ठेन, तिर्यक वातुमारब्धेन प्रवातेन वायुना 'भगवभो तित्थयरस्स जम्मणभवणस्स सत्रओ समंता जोयणपडिमंडलं' भगवतस्तीर्थंकरस्य जन्मभवनस्य सर्वतः दिक्षु समन्ताद् विदिक्षु योजनपरिपण्डलम् ताः अष्टौ दिक्कुमार्यः 'से जहाणामए कम्मारसंवर्तकवायुकाय की विकुर्वणा की वह वायुकाय शिव-कल्याणरूप था मृदुक था भूमि के ही ऊपर बहता था इसलिये अनुद्धत था अनूर्ध्वगामी था-ऊपर की ओर नहीं वहता था इससे भूमितल को साफ करनेवाला होने से वह मनोरञ्जक था 'सशेउय सुरभिकुसुमगंधाणुवासिएणं' समस्त ऋतुओं के पुष्यों की गन्ध से वह वासित था 'पिण्डिमणिहारिमेणं' उसकी गंध पिण्डित होकर दूर दूर तक जाती थी अतः वह (उद्धरेणं) बलिष्ठ था और (तिरिअं पवाइएणं) तिरछा चल. रहा था ऐसे (मारुएणं) उस वायुकाय के द्वारा (भगवओ तित्थयरस्स जम्मण भवणस्स सव्वओ समंता जोयणपरिमंडलं से जहा जामए कम्मदारए सिआ: जाव तहेव) भगवान् तीर्थंकर के जन्म भवन की सब तरफ से अच्छी तरह से उन आठ महत्तरिक दिक्कुमारियों ने कर्मदारक की तरह संमार्जना की-सफाई की यहां आगत यावत्पाद से कर्मदारक के विशेषणों का बोधक पाठ इस प्रकार से, है-यह प्रकट किया गया है-"से जहाणामए कम्मयरदारए सिया तरुणे बलवं, સંવર્તક વાયુકાયની વિમુર્વણા કરી. તે વાયુકાય શિવ કલ્યાણ રૂપ હતું. મૃદુક હતું, ભૂમિ ઉપર જ પ્રવાહિત થતું હતું એથી અનુદ્ધત હતું. અર્ધ્વગામી હતું, એટલે કે ઉપરની તરફ पडेनार न तु. से भूभितम सा३४२नार हेतु तेथी भना२०४४ हेतु : 'सव्वोउयसुरभि कुसुमगन्धाणुवासिएण' सव' ऋतुमानापानी गयी ते आवासितस्तु: 'पिंडिमणिहारिमेण तनाग ७ि३५/२-२ सुधीरताना, मेथी 'उद्धरेणं' मरशी तुमने 'तिरिअपवाहए. णं' पतिथी यासतुडतुसेवा 'मारंएण' तपायुय 43 'मगवओ तिस्थयरस्त जम्मणभवणस्स सव्वओ समंता जोयणपरिमंडलं से जहा नामए कम्मदारए सिंआ जाव तहेव सावान् तथ:કરના જન્મ ભવનના ચેમેરથી સારી રીતે તે આઠ મહત્તરિક દિકુમારિકાઓએ કામદાર કની જેમ સંમાર્જના કરી–સફાઈ કરી. અહીં આવેલા યાવત્ પદના પાઠથી કર્મધારકના
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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