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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४ गहासिन्धुमहानदीस्वरूपनिरूपणम् हारस्तत्संस्थितेन तदा कारेण-प्रपाने धावल्येन बुबुदानां तदाकारतया च तत्सादृश्यं बोध्यम् 'साइरेग जोपणसइएण' सातिरेक योजनशतिकेन सातिरेका किश्चिदधिका योजनातिका योजनशत्येर यो ननतिका शनयोजनानि मानत्वेन यस्य तथाभूतेन, यद्वा सातिरेका योजनशती प्रमाणमस्य नयाभूनेन 'पारणं प्रपानेन नियरेण तद्वारा 'पबडइ' प्रपतति प्रपातकुण्ड प्राप्नोनि, 'गगा माणई जओ' गङ्गामहानदी यतः यस्मात् स्थानात् 'पवडई' प्रपतति, 'इत्य गं' अत्र गङ्गाप्रपातस्थाने सलु 'मह' महती वृहनी 'एगा निम्भिया' एका निधिका जिदाकाराप्रणाली 'पण्णता' प्रजप्ता। 'मा णं जिभिया' सा च जिपिका 'अद्ध जोयणं आयामेणं अर्धयोजनमायामेन, 'छ सकोसाई जोयणाई' सक्रोगानि क्रोशसहितानि पट्योजनानि 'विक्वंभण' विष्कम्भेण विस्तारेण, 'अद्भकोसं वाहरलेणं' अर्द्धकोशं बाहल्येन पिण्डेन 'मगरमुडविउट्टरांठाण संठिया' मकरमुत्र वियतनम्थानसंस्थिता - विवृतमकरमुखाकारा अत्र विघृतस्य आपसात् पाप्रयोगः, 'सब्यबरामद' सर्वचत्रमयी पर्वात्मना वनरत्नमयी 'अच्छा सण्डा अच्छा लक्ष्गा टत्यादि प्रात्वत् 'गंगा महागई जत्थ परडई' यत्र गगामहानदी प्रपतति पन्ध पं' अत्र गद्गाप्रपातस्थाने सलु मह एगे' एक मान् बृहन् 'गंगप्पवाययोजन से भी कुछ अधिक प्रमाणोपेत प्रवाह से प्रपात कुण्ड में गिरती है (गंगामहाणई जमओ पवाद इत्यगं पगा महं जिभिवा पण्णत्ता) गंगामहानदी जिस स्थान से प्रपात कुण्ड में गिरती है वहां पर एक विशाल-जिदिका जैसी आकृतिवाली प्रणाली है (ला णं जिभिया अन्द्र जोयणं आयामेणं छ सकोसाई जोयणाई विश्वंभेणं अकोसं वाटल्लेणं मगर मुह विट संठाणसंठिया सब्धयइरामई अच्छा मण्हा) यह जिदा के जैसी प्रणालो आयाम की अपेक्षा आधे योजन की है और विष्कम्भविस्तार की अपेक्षा यह १ कोग सहित ६ योजन की है । तथा इसका बाहल्य-मोटाई-आधे कोका है इसका आकार मगर के खुले हुए मुख के जैसा है यह सर्वात्मना रत्नमयी है अच्छा-आकाश और स्फटिक के जैसी विलकुल निर्मल है और चिकनी है आप होने के कारण यहां विवृत शब्द का વાળા એકમે એના કરતા પગુ કંઈક અધિક પ્રમાણપત પ્રવાહથી પ્રપાત કુંડમાં પડે છે 'गंगा महाणई जो पक्डइ, इत्थणं गा महं जिभिया पण्णत्ता' ॥ महानही ले स्थान ઉપરથી પ્રપાત કુંડમાં પડે છે. ત્યાં એક વિશાળ જિલ્લા જેવી આકૃતિ ધરાવતી પ્રણાલી छ. 'सा थे जिभिया अद्ध जोयणं आयामेणं छ सकोसाई जोयणाई विक्खंभेणं अद्धकोसं पाहल्लेणं मगरमुहबिटु संठाण संठिया सब वहरामई अच्छा सण्हा' in a પ્રણાલી આયામની અપેક્ષાએ અર્ધા જન જેટલી છે અને વિષ્કભની (વિસ્તાર)ની અપેક્ષાએ એક ગઉ સહિત ૬ જન જેટલી છે. તેમજ એની મોટાઈ (બાહલ્ય) અર્ધ ગાઉ જેટલી છે. એ સર્વાત્મના રત્નમયી છે. અચ્છા-આકાશ અને ટિક જેવી એ તદ્દન નિર્મળ અને નિષ્પ છે. આઈ હેવા બદલ અહીં વિવૃત્ત શબ્દને પર પ્રયોગ થયેલ છે. ज०६
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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