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________________ ३२४ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र पव्वए' वैतात्यो नाम पर्वतः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः तं जहा' तयथा-क्वचिदेतत्पाठो नास्ति, सच कीदृशः ? इति जिज्ञासायामाह-'पाईणपडीणायए' प्राचीनप्रतीचीनायत:-पूर्वपश्चिमदिशो दीर्घः 'उदीणदाहिणविस्थिण्णे' उदीचीनदक्षिण विस्तीर्णः-उत्तरदक्षिणदिशो विरतारयुक्तः 'दुहा' द्विधा 'वक्खारपव्वए' वक्षस्कारपर्वतौ 'पुढे' स्पृष्टः स्पृष्टवान् अत्र स्पृश् धातोः कतरिक्त प्रत्ययस्तेन कर्मणि द्वितीया, एतदेव स्पष्टीकरोति 'पुरस्थिमिल्लाए' पौरस्त्यया पूर्व दिग्भवया 'कोडीए' कोटया-अग्रभागेन 'जाव' यावत् यावत्पदेन-'पुरथिमिल्लं वक्खारपव्ययं पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमिल्लं वक्खारपब्वयं' इति समाद्यम् एतच्छाया-'पौरस्त्यं वक्षस्कारपर्वत पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यं वक्षस्कारपर्वतम्' इति, एतद्वयाख्या सुगमा, एताभ्यां (दोहि वि) द्वाभ्यामपि कोटीभ्यां पूर्वोक्तौ पौरस्त्यपाश्चात्यो चित्रकूटमाल्यवन्तौ वक्षस्कारपर्वतौ (पुढे) स्पृष्टः स्पृष्टवान एवं सः (भरहवेयद्धसरिसए) भरतवैताढयसदृशका भरतवर्पवर्तिवैताढयवत् रजतमयत्वाद्रुचकसंस्थानसंस्थितत्वाच्च बोध्यः (णवरं) नवरं-केवलम् (दो वाहाओ) द्वे वाहे (जीवा) जीवा (धणुपुटं च) धनुप्पृष्ठं चैतद्वस्तुत्रयं (ण कायब्ध) न 'पाईणपडीणायए' पूर्व एव पश्चिमदिशा में वह लंबा है। 'उदीण दाहिणविधिण्णे' उत्तर एवं दक्षिण दिशा में विस्तार युक्त है । 'दुहा' दोनों तरफ 'वक्खारपन्वए' वक्षस्कार पर्वत 'पुटो' स्पृष्टः स्पृष्ट है' 'पुरथिमिल्लाए' पूर्वदिशासंबंधी 'कोडीए' कोटी ले 'जाव' यावत् 'पुरथिमिल्लं वक्खारपव्ययं' पूर्वदिशा के वक्षस्कार पर्वत को 'पच्चस्थिनिल्लाए कोडीए' पश्चिमदिशा संबंधी कोटी से 'पच्चथिमिल्लं वक्खारपवयं' पश्चिमदिशा के वक्षस्कार पर्वत को इस प्रकार ये 'दोहि वि' दोनों कोटी से पूर्वपश्चिम के चित्रकूट एवं माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत 'पुढे' स्पृष्ट है। इस प्रकार वह "भरह वेयद्धसरिसए' भरत वैताढय के समान अर्थात् भरत वस्थित वैताढय के सदृश-अर्थात् रजतमय एवं रुचक संस्थान में संस्थित होने से समझलेवें । 'णवरं' केवल 'दो वाहाओ' दो वाहा 'जीवा' विश्यमा 'वेयद्धे णामं पव्वए' वैतादय नाभन त 'पण्णत्ते' ४३स छे. 'तं जहा' तो छ १ मे मतावे छे. 'पाईणपडीणायए' पूर्व मने पश्चिम शाम त eiमा छ. 'उदीणदाहिणवित्थिण्णे' उत्तर मन दक्षि हिशाम विस्तारपाणी छे. 'दुहा' भन्ने त२५ 'वक्खारपब्वए' पक्षा२ 'त 'पुढे' पछि 'पुरथिमिल्लाए' पूर्व संधी 'कोडीए' डीथी 'जाव' यावत् 'पुरथिमिल्लं वक्खारपव्वयं' पू शाना १९४२ पतन 'पच्चस्थिमिल्लाए कोडीए' पश्चिम दिशा समधी टीथी 'पच्चत्थिमिल्लं वक्खारपव्वयं' पश्चिम सन १६४।२ तिने मे शते थे 'दोहिवि' पूर्व पश्चिम मन्न थी अर्थात त्रिट मने माल्यवान् १९४२ तिने 'पुढे' २५0 छ. मा शते ते. 'भरहवेयद्ध सरिसए' सरत भने वैतादय पवतो सर सरले रत्नभय भने ३३४ स्थानमा स्थित पाथी तभ सभ दे णवरं पण दो वाहाओ' में पारा 'जीवा' ७ 'धणु
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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