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________________ २८० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अथैपां परिधि वक्तुं पद्ममाह-एपां प्रासादावतंसकानां 'मूले मूले-मूलावच्छेन 'पणवीसं' पञ्चविंशति योजनानि सविशेपाणि किञ्चिदधिवानि परिग्यः-परिधिः वर्तुलत्यम्, चपुनः 'मज्झि' मव्ये मध्यदेशावच्छेदेन 'डारस' अष्टादश योजनानि 'सविसेसाई' सविशेपाणि 'परिरओ' परिरयः-परिधिः, च-पुनः 'उचरि' उपरि-शिखरभागे 'वारसेव' द्वादशयोजनानि सविशेषाणि परिरयो 'कूडस्स इमस्स बोद्धव्यो' अस्य-कूटस्य बोद्धव्यः इति रीत्या यथासंख्यं योजनीयम् । एवं सति तत्कूटं 'मूले वित्थिणे' मुले-विस्तीर्णय-विस्तारयुक्तम 'मज्झे संखित्ते' मध्ये संक्षिप्तम् इस्वतां गतम्, 'उवरि' उपरि-शिखरमागे 'तणुए' तनुकम्प्रतनु-मूलाध्यापेक्षया, तथा-तत्कूटं 'सव्य कणगामए' सर्वरत्नमयम्-सात्मना-वैड्यादिरत्नमयम्, 'अच्छे' अच्छम्-आकाशस्फटिकवनिर्मलम्, उपलक्षणमेतत् श्लक्ष्णादीनाम् तेन श्लक्ष्णम् इत्याद्यपि वक्तव्यम् तेपां व्याख्या प्राग्वत्, 'वेड्या-वणसंडवण्णओ' वेदिका वनहोता है "उवरि शिखर के भाग में 'चत्तारि जोयणाई आयामधिक्खंभेणं' चार योजन का आयामविष्कंभ कहा है। __ अब उसकी परिधी का मान कहते हैं-इन प्रासादावतंसक के 'मूले' मूल भाग में 'पणवीसं' पचीस योजन से कुछ अधिक परिधि-वर्तुलत्व कहा है। 'मज्झि' मध्य भाग में 'हारस' अठारह योजन से 'सविसेसाई कुछ अधिक 'परिरओ' परिधि 'कूडस्स इनस्स बोद्रव्यो' इस कूट का प्रमाण जान लेना चाहिए । इस प्रकार से वह कूट 'मूले वित्थिपणे' मूल भागमे विस्तृत 'मज्झे संखित्ते' मध्यमें संकुचित 'उवरि' शिखर के भाग में 'तणुए' मूल भाग एवं मध्य भाग की अपेक्षा से पतला कहा है । तथा वह कूट 'सव्वकणगामए' सर्वास्मना रत्नमय 'अच्छे आकाश एवं स्फटिक के जैसा निर्मल यह अच्छ पद लक्षण इत्यादि का उपलक्षण है अतः श्लक्ष्णादि समग्र विशेषणविशिष्ट कहलेना। इन पदों की व्याख्या पूर्ववत् समझलेवें 'वेड्या वणसंडवण्णओ' यहां पर वेदिका एवं वनपंड का वर्णन संपूर्ण कह लेवें।। मागमा 'चत्तारि जोयणाई आयामविक्ख भेणं' यार यौन सा मायाम qिoxnxa . હવે તેની પરિધીનું માપ બતાવે છે. આ પ્રાસાદાવર્તસકેના “નૂ ભૂલભાગમાં 'पणवीसं' ५-यास योगनयी ४६ धारे परिधि-पतुसता ४ छ 'मज्झि' मध्यमामा 'द्वारस' मदार यानी 'सविसेसाई' ४४ पधारे 'परिरओ' पश्चिी ४९ छे. उवरि ५२ना लाजमा 'बारसेव' मा२ या नथी ४४ पधारे 'परिरओ' परिधि 'कूडस्स इमस्स बोद्धब्बो' मा टनु प्रभार सभास. सी मेट 'मले वित्थिण्णे' भूसमागमा विस्ता२पाणी 'मझे संक्खित्ते' मध्यमा सथित 'उवरि' शिमना मागमा 'तणुए' भूण बारा भने मध्यसागनी अपेक्षाथी पात छ. तथा ये टूट 'सव्वकणगामए' समिना नभय, “અરજી આકાશ અને સ્ફટિકની જેવા નિર્મળ આ અચ્છ પદ ગ્લફણાદિનું ઉપલક્ષણ છે. તેથી ક્ષણ વિગેરે તમામ વિશેષણેથી વિશેષિત કહિલે, આ પદની વ્યાખ્યા પહેલાની જેમ
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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