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________________ ★ २६४ जम्बूडीपप्रज्ञप्तिसूत्रे ग्रहणे पूर्वापरशाखाद्वयविस्तारस्य विषमश्रेणिकत्वाद् ग्रहणं प्रसक्तं स्यात्, यद्वा-बहुमध्यदेशभागः कासामित्यपेक्षायां शाखानामिति गम्यते, यतश्चतुर्दिक् शाखामध्यभागस्तस्मिन्नित्यर्थः, अष्टयोजनानयनं तु प्राग्वदेव । उच्चताया तु 'सच्चग्गेणं' सर्वाग्रेण सर्वसङ्ख्यया कन्द-स्कन्धचिडिमापरिमाणमेलने 'साइरेगाई' सातिरेकाणि - किश्चिदविकानि 'अह जोयणा' अण्ड योजनानि जम्बूसुदर्शना प्रज्ञप्तेति सम्बन्धः । अथास्या वर्णकमाह - 'तीसे णं अयमेयारूवे - वण्णावासे पण्णत्ते' तस्याः - जम्बूसुदर्शनायाः खलु अयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, 'बहरामया मूला' वज्रमयानि - वज्ररत्नमयानि मूलानि यस्या सा तथा दीर्घश्च प्राकृतत्वात्, 'स्वयसुपट्टियविडिया' रजतसुप्रतिष्ठित विडिमा - रजतमेव- उन्मयी सा चासौ सुप्रतिष्ठितविडिमासुप्रतिष्ठिता-गुण्डु स्थिता विडिमा - बहुमध्यदेशभागे उपरिनिस्सृता शाखा यस्या सा तथा, 'जाव' यावत् - यावत्पदेन चैत्यवृक्षवर्णकः सर्वोऽपि ग्राह्योऽत्र । किम्पर्यन्तो वर्णक इत्याहजैसा पुरुष के कटिभाग को मध्य भाग से कहते हैं, इस प्रकार न कहे तो शास्त्रा के दो योजन पर्यन्त फैलने पर निश्चित मध्यभाग का गृहण करने पर पूर्व पश्चिम की दो शाखा के विस्तार की विषम श्रेणी हो जाती अतः यह व्यावहारिक मध्यभाग ग्रहण करना ठीक है । अथवा किसका चहुमध्यदेशभाग इस अपेक्षा में शाखा का ऐसा जान पडता है अतः चारों दिशा की शाखा का मध्य भाग ऐसा कहा जायतो पहले के कथनानुसार आठ योजन आजाता है । उच्चत्व के बारे में 'सव्वग्गेणं' सर्वात्मना स्कन्द-स्कन्ध एवं शाखा का मान का मिलान करने से 'साइरेगाई' कुछ अधिक ' जोयणाई' आठ योजन की जम्बू सुदर्शना कही है । 1 अब जंबू सुदर्शनाका वर्णन करते हैं- 'तीसे णं अयमेयाख्ये वण्णावासे पण्णत्ते' उस जंबू सुदर्शना का वर्णन प्रकार इस प्रकार कहा है- 'चहरामया मूला' चन्नरत्नमय उसका मूल भाग है 'रयय सुपइडियदि डिमा' रजतमय सुप्रतिष्ठित विडिया - शाखाएं हैं अर्थात् बहुमध्य देशभाग में ऊपर की ओर ચેાજન પર્યંન્ત ફેલાવાથી નિશ્ચિત મધ્યભાગનું ગ્રહણ કરવાથી પૂર્વ પશ્ચિમની એ શાખાના વિસ્તારની વિષમ શ્રેણી થઇ જાત એથી આ વ્યવહુ રિક મધ્યભાગ ગ્રહણુ કરવા એજ ઉચિત છે. અથવા કેના મર્હુમધ્ય દેશભાગ એ અપેક્ષામાં શાખાના મધ્ય ભાગ એમ હેવામાં આવે તે પહેલાના કથન પ્રમાણે આઠ ચેાજન આવીન્દ્ર ય છે. ઉંચાઇના કથનમાં 'सत्रोण' सर्वात्मना २४४-२४६ शाणानु भाय भेजववाथी 'साइरेगाइ' ३४४ वधारे 'अट्ठ जोयणाई' या योजन नेटसी णू सुदर्शना महेस . हवे सुदर्शननु वार्जुन श्वामां आवे छे- 'तीसेणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते' सुदर्शननो वर्णन प्रहार मा रीते डेस छे. - ' वइरामया मूला' १०० २त्न भय तेना भूज लाग छे. 'रययसुपइट्टिय विडिमा' २४तभय सुप्रतिष्ठित विडिभा-शाणाओ छे. अर्थात् महुभभ्य हेशलागभां उपरनी तरह नीम्जेस शायायो छे. 'जाव' यावत्
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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