SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ __ जम्बूढीपप्रनप्तिसूत्र आथास्माद् या नदी दक्षिणेन प्रवहति तामाह-'तस्स णं तिमिछिद्दहस्स' इत्यादि, . मूलम्-तस्लणं तिगिछिद्दहस्स दकिम्वणिल्लेणं तोरणे गं हरिमहाणई पवूढा समाणी सत्त जोयणसहस्साई चत्तारिय एकवीसे जोयणसए एगं च एगूणवीसइभाए जोयणस्स दाहिणाभिमुही पत्रएणं गंता महयाघडसुहपवित्तिएणं जाव साइरेग चउ जोयणसइएणं पवाएणं पवडइ, एवं जा चेत्र हरिकंताए वत्तव्वया सा चेव हरीए वि णेयवा, जिभियाए कुंडल दीवस्स भवणस्स तं चेव पमाणं अट्रो वि भाणियव्वो जांव अहे जगई दलइत्ता छप्पण्णाए सलिलासहस्से हिं समग्गा पुरस्थिमं लवणसमुदं समप्पेइ, तं चेव पबहे य सुहमूले य पमाणं उव्वेहो य जो हरिकताए जाव वणसंड्रसंपरिक्खित्ता, तस्स णं तिगिछिद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सीओथा महाणई पवूढा समाणी सत्त जोयणसहस्लाइं चत्तारि य एगवीसे जोयणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोयणस्त उत्तराभिमुही पव्वएणं गंता महया घडमुहपवित्तिएणं जाव साइरेग चउजोयणलइएणं पवाएणं पवडइ, सीओयाणं महाणई जओ पवडइ एत्थ णं महं एगा जिभिया पण्णत्ता, चत्वारि जोयणाई आयामेणं पण्णास जोयणाई विक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं मगरमुहविउ संठाणसंठिया सव्ववइरामई अच्छा, सीओया णं महागई जहिं पवडइ एत्थ णं महं एगे नामकी देवी रहती है इस कारण हे गौतम इसका नाम तिगिछिद्रह ऐसा कहा है " अहो जाय" यहां जो यावत्पद आया है उससे " तत्र बहनि उत्पलकुमुद सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, शतपत्र सहन्त्रपत्राणि फुल्लानि केसरोपचितानि" यह पाठ गृहीत हुआ है महर्द्विका के साथ आगत यावत् पद ग्राह्य पदों का संग्रह अष्टम सत्र से जान लेना चाहिये ॥१५॥ गोयमा ! एवं बुच्चई तिगिछिदहे २२ मही भरवि यावत् पट्यापम रटना स्थिति વાળી ઘતિ નામક દેવી રહે છે. એ કારણથી હે ગૌતમ! એનું નામ તિગિછિ કહે એવું राणवाभा मा०यु छे. 'अद्रो जाव' मी २ यावत ५४ गावस छ, तनाथी 'तत्र बनि उत्पल-कुमुद, सुभग, सौगंधिक, पुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्राणि, फुल्लानि केसरोपचितानि सा8 सहीत छ. महनी साथमावत 'यावत' ५४ श्राहा पाउ અષ્ટમસવમાં કરવામાં આવેલ છે. જિજ્ઞાસુ લેકે ત્યાથી જાણવા યત્ન કરે છેસ. ૧૧ |
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy