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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १२ महापद्महदस्वरूपनिरूपणम् परिक्खेवेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सव्वरयणामए अच्छे' द्वात्रिशतं योजनानि आयामविष्कम्भेण, एकोत्तरं योजनशतं परिक्षेपेण, द्वौ क्रोशौ उच्छ्रितो जलान्तात्, सर्वरत्नमयोऽच्छा, 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं जाव संपरिक्खित्ते वण्णओ भाणियव्यो त्ति' स खलु एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनपण्डेन यावत् सम्परिक्षिप्तः वर्णको भणितव्य इति, 'पमाणं च सयणिज्जं च अट्ठोय भाणियब्यो' प्रमाणश्च शयनीयश्च अर्थश्च भणितव्यः। 'तस्स णं हरिकंतप्पवायकुंडस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं जाव पवूढा समाणी हरिवस्सं वासं एजमाणी २ वियडावई वट्टवेयद्धं जोयणेणं असंपत्ता पच्चस्थाभिमुही आवत्ता समाणी हरिवासं दुहाविभयमाणी २ छप्पण्णाए सलिलासहस्से हिं समग्गा अहे जगई दलइत्ता पच्चआयामविखंभेणं एगुत्तरं जोयणसयं परिक्खेवेणं दो कोसे ऊसिये जलंताओ सम्बरयणामए, अच्छे) यह द्रोप आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा ३२ योजन का है १०१ योजन का इसका परिक्षेप है तथा यह जल के ऊपर से दो कोशतक ऊंचा उठा है सर्वात्मना यह रत्नमय है और आकाश एवं स्फटिक के जैसा निर्मल है (सेणं एगाए पउमवरवेड्याए एगेण य वणसंडेणं जाव संपरिक्खित्ते) यह एक पद्मवर वेदिकासे और एक वनषण्डसे चारों ओर से घिरा हुआ है (वण्णओ भाणिअव्वोत्ति) यहां पर पद्मवर वेदिका और वनषण्डका वर्णन करलेना चाहिये (पमाणं च सयणिज्जं च अट्ठोय भाणियव्यो) तथा हरिकान्त द्वीपका प्रमाण, शयनीय एवं इस प्रकार के इसके नाम होने के कारण रूप अर्थ का भी वर्णन करलेना चाहिये (तस्स णं हरिकंतप्पवायकुण्डस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं जाव पवूढा समाणी हरिवस्सं वासं एज्जमाणी २ विअडावई वट्टवेयद्धं जोयणेणं असंपत्ता पच्चत्थाभिमुही आवत्तासमाणी हरिवासं दुहा विभयमाणी २ छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दलइता पच्चत्थिमेणं लवण. समुई समप्पेइ) उस हरिकान्त प्रपातकुण्ड के उत्तरदिग्वर्ती तोरण द्वार से यावत् परिक्खेवेणं दो कोसे असिए जलंताओ सव्वरयणामए अच्छे से बीय मायाम मावि ભની અપેક્ષાએ ૩૨ જન જેટલું છે. ૧૦૧ જન જેટલો આને પરિક્ષેપ છે તેમજ એ પાણીની ઉપરથી બસે ગાઉ ઊંચે છે. એ સર્વાત્મના રત્નમય છે અને આકાશ તેમજ ११ वी येनी निमन्ति छ. 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं जाव संपरिक्खिते' को मे ५१२ हाथी मन मे वनथी यामेर माटत छ. 'वण्णओ भाणिअव्वोत्ति' मी पनव२ ३६ मने वनमनु वन समय से नये. 'पमाणं च सयणिज च अट्ठोय भाणियचो तेमा Reld द्वीपनु प्रम शयनीय तभर मा प्रमाणे । मेनु नाम ४२४ विष ५ गडी स्पष्टता ४३ वा नये. 'तस्स णं हरिकंतप्पवायकुण्डस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं जाव पवूढा समाणी हरिवस्सं वास एज्जमाणी २ विअडावई वट्टवेयद्धं जोयणेणं असंपत्ता पच्चत्वाभिमूही आवत्ता समाणी हरिवासं दुहा विभय
SR No.009346
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages803
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size67 MB
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