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________________ आवश्यक मूत्रस्य - - - गुणेषु स्यलितम्य निन्दाभिहिता, इह त्वाचारमस्पलितस्य चारित्रपुरुषस्याविचार लक्षणग्रणोत्पत्तिसम्भवात्तचिकित्सारूप कायोत्सर्ग उच्यते, अथवा प्रोने गति क्रमणाध्ययने मिथ्यात्वापिरत्यादिपञ्चविधपतिक्रमणद्वारा कर्माऽऽगमप्रतिरोध उपपादित', इह तु कायोत्सर्गविधिना पूर्वसचिताना कर्मणा प्रक्षयो भवतीति भतिपाद्यते-'इच्छामि ण' इत्यादि ॥ मूलम् ॥ इच्छामिण भते तुम्भेहि अन्भणुण्णाए समाणे । देवसियपायच्छित्तचिसोहणट्ट करेमि काउस्सग्ग ॥१॥ ॥ छाया ॥ इच्छामि खलु भगवन् युष्माभिरभ्यनुज्ञात' सन् । देवसिकमायश्चित्तविशोधनार्थ करोमि कायोत्सर्गम् ॥१॥ ॥ टीका ॥ . . , . व्याख्या प्रस्फुटा ॥ १॥ पूर्व (चौथे) अध्ययन में मूल और उत्तर गुणो मे स्खलित की निन्दा कही है, इस पांचवें अध्ययन में आचार से , स्खलित चारित्ररूप पुरुष के अतिचाररूप व्रण (घाव) होने के सभव से उस की चिकित्सारूप कायोत्सर्ग कहा जाता है । ' अथवा प्रतिक्रमणाध्ययन में मिथ्यात्व आदि पाँच प्रकार के प्रतिक्रमण द्वारा कर्मों के आगमन का प्रतिरोध किया गया है, और यहाँ कायोत्सर्ग द्वारा पूर्वसञ्चित कर्मों का क्षय दिखलाया जाता है-'इच्छामिण भते' इत्यादि। - પ્રથમ પહેલા (થા) અધ્યયનમાં મૂલ અને ઉત્તર ગુણેમા સ્કૂલિતની નિદ્ધા કહી છે આ પાચમા અધ્યયનમાં આચારથી ખલિત ચારિત્રરૂપ પુરુષના તિરાર રૂ૫ વ્રણ (ઘા) થવાની સ ભવથી તેની ચિકિત્સારૂપ કાન્સ કહે છે. અથવા પ્રતિક્રમgશ્ચયનમાં મિથ્યાત્વ આદિ પાંચ પ્રકારના પ્રતિક્રમણ દ્વારા કળા આવવાપણું કરવામાં આવે છે, અને અહીં કાર્યોત્સર્ગ દ્વારા वामा भाषेत छ (इच्छामि ण मते) त्या પૂર્વ સચિત
SR No.009344
Book TitleAavashyak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages575
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size15 MB
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