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________________ २३८ आवश्यकमूत्रस्य ॥ मूलम् ॥ वावीसाए परिसहेहिं । सू० १५ ॥ ॥ छाया ॥ द्वाविंशत्या परिप? ॥ सू० १५ ॥ ॥ टीका ॥ 'परिसहेहि परि समन्तात् सद्यन्ते-क्षम्यन्ते कर्मनिर्जराथै मोक्षार्थिभिरिति परिपहास्तैः, ते यथा क्षुधापरिपहः (१), पिपासापरिपहः (२), शीत परिपह. (३), उप्णपरिपहः (४), दशमशकपरिपहः (५), अचेलपरिपहः (६), अरतिपरिपह. (७), स्त्रीपरिपहः (८), चर्या-(विहार) परिपह (), नैषेधिकीपरिपहः (१०), शग्यापरिपहः (११), आक्रोशपरिपहः (१२), वधपरि पहः (१३), याचनापरिपहः (१४), अलाभपरिपहः (१५), रोगपरिषह (१६), तृणस्पर्शपरिषहः (१७), जल [मल्ल]-परिपह' (१८), 'सत्कारपुरस्कारआदि से दिये हुए आहार आदि का सेवन करना, इनसे जो अतिचार हुआ हो तो उससे मैं निवृत्त होता हूँ ॥सू० १४॥ .. मोक्षार्थी जिन्हें कर्मों की निर्जरा के लिये सहन करते हैं उन्हें 'परिपद' कहते हैं वे चाईस हैं (१) क्षुधा, (१) पिपासा, (३) शीत, (४) उष्ण, (५) दशमशक, (६) अचेल, (७) अरति, (८) स्त्री, (९) चर्या (चलना), (१०) नषेधिकी (बैठना), (११) शय्या, (१२) आक्रोश, (१३) वध, (१४) याचना, (१५) अलाभ, (१६) रोग, (१७) तृणस्पर्श, (१८) मल, (१९) सत्कारपुरस्कार, (२०) प्रज्ञा, (२१) अज्ञान, (२२) કરવુ,-એ સર્વથી જે કઈ અતિચાર લાગ્યા હોય તે તેમાથી હુ નિવૃત્ત થાઉં છું (सू. १४) મેક્ષાથી જ કર્મોની નિર્જ કરવા માટે જે સહન કરે છે તેને પરિષ' કહે છે અને તે પરિષહ બાવીસ-૨ પ્રકારના છે (૧) મુધા ભૂખ, (२) पिपासा (तृषा), (3) शीत (61), (४) GY (ताप), (4) शमश (स) (भ७२), (६) मयेत, (७) मरति, (८) स्त्री, (6) यर्या (स्यासयुत), (१०) नवधि (नस), (११० शय्या, (१२) श, (१३) १५, (१४) यायना (१५) मला, (१९) ३०१, (१७) तृशस्पर्श, (१८) भस, (16) सलारपुर, (२०) प्रज्ञा, १- अत्र सकारो वस्त्रादिना, पुरस्कारवाभ्युत्थानादिना ।
SR No.009344
Book TitleAavashyak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages575
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size15 MB
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