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________________ - - सुनितोपणी टीका, पतिक्रमणाभ्ययनम्-४ ॥ टीका ॥ 'चउद्दसहि' चतुर्दशभिः, 'मृयग्गामेडिं' भूतानि जीवास्तेपा ग्रामाः समुदायास्तै, ग्रामैरिति वहुवचनेन मैकेन्द्रियग्राम-वादरैकेन्द्रियग्राम-द्वीन्द्रियग्राम-नीन्द्रियग्राम-सज्ञिपञ्चेन्द्रियग्रामा-ऽसज्ञिपञ्चेन्द्रियग्रामाणा पर्याप्तकाऽपर्याप्तकभेदेन चतुर्दशाना ग्रहणमभिप्रेतम् । एतत्सूत्रस्थाना सर्वेषामेव पदाना 'यो मयाऽतिचार' कृत ' इत्यादिभि पूर्वोः सम्बन्धः । पन्नरसहि' पञ्चदशभि', 'परमाइम्मिएहि' धर्म चरन्तीति धार्मिका न धार्मिका: अधार्मिका परमाश्च ते अधार्मिका =परमाधामिकाः अतिकलपित हृदयपरिणामा यम-लोकपालसेवका असुरकुमारदेव विशेषास्तैस्तकृतपापाऽनुमोदनादिभिरित्यर्थ । तन्नामानि मोक्तानि यथा (१) अने, (२) अपरिमी, (३) सामे, (४) सवले, (५) रुद्दे, (६) उवरुदे, (७) काले, (८) महाकाले, (९) असिपत्ते, (१०) धणू, (११) कुभे, (१२) वाल्, (१३) वेयरणी, (१४) खरस्सरे, (१५) महाघोसे। तत्र 'अम्बः'अम्बनामा परमापार्मिको, यो हि नारकान् गगनतल __ (१) सूक्ष्म एकेन्द्रिय, (२) चादर एकेन्द्रिय, (३) द्वीन्द्रिय, (४) त्रीन्द्रिय, (५) चतुरिन्द्रिय, (६) अमजि पञ्चेन्द्रिय (७) सजि पञ्चन्द्रिय, इन सातों के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से चौदह भृतग्राम (जीवसमूह) होते हैं, इनकी विराधना आदि से जो अतिचार लगा हो तो उमसे मे निवृत्त होता है अत्यन्त कलुपित परिणाम वाले होने से परमाधार्मिक कहलाने वाले देव (१५) पन्द्रह प्रकार के हैं - (१) अप-नारकी जीवों को आकाश में ले जाकर नीचे (१) सक्षम दय, (२) १९६२ मेद्रिय (3) alन्द्रिय, (४) श्रीन्द्रिय, (५) यतुरिन्द्रिय, (6) मसज्ञि पन्द्रिय, (७) सति पयन्द्रिय, मा सातना पर्याप्त અને અપર્યાપ્તના ભેદથી ચૌદ ભૂતનામ (જીવસમૂહુ) હોય છે એઓની વિરાધના આદિથી જે અતિચાર લાગ્યા હેય “તે તેથી હુ નિવૃત્ત થાઉ છું” અત્યત કલુષિત પરિણામવાળા હોવાથી પરમાધાર્મિક કહેવાતા દેવ પદર २ना छ
SR No.009344
Book TitleAavashyak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages575
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size15 MB
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