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________________ मुनितोपणी टीका ৩৩ स्तदर्थत्वाभावेन न तद्योग इदम्, कुप्यति कस्मै चिदित्यायसाध्वेवे -ति। 'निन्दामि, गर्हामि' इत्यनयोस्तस्येत्यनेन प्रागुतन सम्बन्धस्तेन सावायोगसम्बन्धिनी स्वसासिकी गुरुसाक्षिकी च निन्दा करोमीति निर्गलितोऽर्थः, तस्येत्यत्र सम्बन्धसामान्ये पष्ठयाः प्रागुक्तत्वात् । यद्वा 'आत्मान'-मित्यस्यैव मन्यमणिन्यायादेहलीदीपन्यायाद्वा व्युत्सृजामीत्यनेन निन्दामि, गर्हामि' इत्याभ्या च सम्बन्धस्तेन सावधयोगकारिणमात्मान जुगुप्से, व्युत्सृजामि-विविधभावनया विशिष्य वा परित्यजामीत्यर्थः ॥१० १॥ साक्षी से होती है। अथवा निन्दा साधारण कुत्साको कहते है और गर्दा अत्यन्त निन्दा को कहते है। इसका अर्थ यह होता है कि-हे भगवन् ! अतीत काल में सावध व्यापार करनेवाले आत्मा (आत्मपरिणति) को अनित्य आदि भावना भाकर त्यागता हूँ, निन्दा करता हूँ, गहीं करता है। जैसे घर की देहलीपर दीपक रखने से भीतर भी प्रकाश होता है और बाहर भी प्रकाश होता है, इसीको 'देहली दीपक' न्याय करते हैं, कहा भी है-'परै एक पद् वीच मे, दुहु दिम लागै सोय। सो है दीपक-देहरी, जानत है सर कोय ॥१॥ बीच में मणि जड देने से दोनों ओर मणिका प्रकाश होता है, यह 'म यमणि' न्याय कहलाता है, इसी प्रकार 'अप्पाण' का दोनो के साथ सम्बन्ध होता है। अर्थात् सावन्य व्यापारवाली आत्मा को त्यागता हूँ और उसकी निन्दा करता हूँ तथा गर्दा करता हूँ॥सू० १॥ ગોં ગુરૂસાક્ષીએ થાય છે, અથવા નિદા સાધારણ કુત્સાને કહે છે અને ગહ અત્યત નિદાને કહે છે આનો અર્થ એ થાય છે કે હે ભગવન્! અતીત કાળમાં દડ (સાવદ્ય વ્યાપાર) કરનાર આત્મા (આત્મપરિણતિ) ને અનિત્ય આદિ ભાવને ભાવીને ત્યાગુ છુ, નિંદુ છુ, ગણું છુ, જેમ ઘરની દેહલી (ઉબર) પર દી રાખવાથી અદર પણ પ્રકાશ થાય છે અને બહાર પણ પ્રકાશ થાય છે તેને “દેહલી-દીપક ન્યાય” કહે છે કહ્યું છે કે-પરે એક પદ બીચમે, દુહ દિસ લાગે સંય સે है '५४-हेरी,' बनत स५ अय (1) क्यमा मधिी वाथी 6 બાજુ મણિને પ્રકાશ થાય છે તેને મધ્યમણિ-ન્યાય' કહે છે એ જ રીતે
SR No.009344
Book TitleAavashyak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages575
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size15 MB
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