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________________ सुवोधिनी टीका. १०५ सुर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्ण' नम् मासिकां प्रत्यन्ति । ततः खलु स चित्रः सारथिः कौटुम्बिक पुरुषाणाम् अन्तिके एतमर्थ यावत् हृदयः स्नातः कृतचलिकर्मा कृतकौतुकमङ्गलमायश्चित्तः सन्नद्धवद्भवर्मितकवचः उत्पीडित सनपट्टिका विद्वत्रैवेयविमलवर चिह्नपट्टो गृहीतायुधप्रहरणस्तन्महार्थ यावत् प्राभृत" गृह्णाति, यत्रैव चातुर्घष्टः अश्व रथस्तत्रैव उपागच्छति, चातुर्धटम् अश्वरथं दुरोहति बहुभिः पुरुपैः समद्धकर उपस्थित कर दिया (तमाणत्ति पच्चपि गति) और चित्र सारथि के पास रथ को तैयार हो जाने की खबर भेज दी. (तएण से चित्ते सारही कोड विपुराण अंतिए एयमई मोचा जाव हियए हाए कयथलियम्मे heater गलपायच्छते सन्नद्धच्वम्मियकचए, उप्पीलियसग सण पहिए, पिणद्धगेविज्ज, विमलवरचिंधपट्टो गहियाउहप्पहरणे तं महत्थ जाव पाहुड गे हा) कौटुम्बिक पुरुषों से की गई खबर को सुनकर वह चित्र सारथि बहुत ही अधिक आदित एवं संतुष्ट चित्त हुआ उसने उसी समय उठकर स्नान किया. बलिकर्म (काकआदि को अन्नभाग देनेरूप) किया, कौतुक संगल एवं प्रायश्चित्त किये अच्छी तरह से बांधकर कवच पहिरा, प्रत्यंचा चढाकर धनुष को नम्रीभूत किया, ग्रीवा में हार पहिरा, तथा सुन्दर चित्रों से चिह्नित निर्मल वस्त्र धारण किये और खङ्गादिक आयुधों को साथ में लिये इस प्रकार से अच्छी तरह से सज्जित होकर उसने उस महार्थसाधक यावत् प्राभृत को हाथ में लिया और (जेणेव चाउ घटे आमरहे तेणेव उवागच्छड़ सत्यित श्रीने अश्वरथने उपस्थित ये. (तमाणत्तिय पच्च पण 'ति) भने २थ तैयार थ भवानी अमर चित्र सारथिनी पासे चहाडी (तएण से चित्रे सारही कोड बियपुरिसाण अतिए एयमहं सोचा जाब हियए हाए कलिकम्मे कयकोउयमं गलपायच्छते सन्नद्धबद्धवम्मियकत्रए उप्पीलियतरासणपट्टिए, पिंणद्ध विज्जविमलवर चिंधपट्टे गहियाउहप्पहरणे त महत्त्थ जात्र पाहुड' गेव्हइ) टुङि पुरुषोनी अभ पूर्ण थ भवानी अमर सांलजीने ते चित्र સારથિ ખૂખજ આનદિત અને સંતુષ્ટ ચિત્ત થયા. તેણે તરતજ સ્નાન કર્યુ, અલિ ક કર્યું”, કૌતુક મંગલ અને પ્રાયશ્ચિત્ત કર્યાં. સરસ રીતે કસીને કવચ પહેર્યું", પ્રત્યંચા ચઢાવીને ધનુષને નમ્ર અનાવ્યુ. ગળામાં હાર પહેર્યાં, સુંદર સુંદર ચિત્રાથી ચિત્હિત નિ`ળ વસ્ત્રો ધારણ કર્યાં. અને ખગ વગેરે આયુધા અને પ્રહરણા સાથે લીધાં.આ પ્રમાણે સરસ રીતે સજ્જિત થઈને તેણે તે મહા સાધક યાવત્ લેટને હાથમાં લીધી અને (जेणेव चउघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छर, चाडघंटे आसरहं दुखहेइ) લઈને તે જયાં ચાતુ ૮ અધરથ તૈયાર હતા ત્યાં ગયે. ત્યાં જઈને તે રથ ઉપર २९.
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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