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________________ १९ वहु -सुबोधिनी टीका सु. १०२ सूर्याभदेवस्य पूर्वभाज प्रदेशिराजवर्णनम् ''ए' छाया— दीप्तो विस्तीर्ण विपुलशनामनयानवाहनाकीर्णो बहुधनबहुजातरूप-रजतद्यायोगस' प्रयोगस प्रयुक्तो विच्छर्दित विपुल भक्तपानो दासीदास गोमहिष गवेलकमभूतः इतिस'ग्राह्यम्, तत्र दीप्तः तेजस्वी विस्तीर्ण विपुल वनशयनासनयानवाहना कीण :- विस्तीर्णानिविस्तृतानि विपुलानि बहूनि भवनानि = गृहाः, शयनानि=तल्पानि आसनानि=पीठकादीनि यानानि= शकटप्रभृतीनि वाहनानि=इयादयस्तैराकीणे = व्याप्तममुपेतो वा बहुधन वहुजानरूपरजतः - बहु = विपुल धन = गणिमप्रभृति यस्य स बहुधनः, बहु-विपुल जानरूपं=सुवर्ण रजत=रूप्यं च यस्य स बहू जातरूपरजतः बहुधनथासौ बहुजातरूप- रजनश्चान बहुधन बहुजातरूपरजतः, तथा आयोग संप्रयोगसंप्रयुक्तः श्रासमन्ताद् योजन = द्विगुणादिलाभार्थ रूप्यादीनामधमर्णा , , * म्वन है | नेत्र जैसे अपने विषयभूत होने योग्य पदार्थों का प्रदर्शक होता है उसी प्रकार से यह सब सबके लिये सकलार्थ का प्रदर्शक था यदुक्तम्-, "मेधिः प्रमाण आधारः, आलम्बन चक्षुः " इस बात की स्पष्ट प्रतिपत्ति के लिये उपमावाचक भूतशब्द इनके साथ जोड़ कर मूत्रकार ने पुनः इनकी इस प्रकार से श्रावृत्ति की है - यह मेडि भूत, प्रमाणभूत, आधारभूत एवं चक्षुभूत था अतः सर्वस्थानों में - सन्धि, विग्रह आदिरूप सब जगहों में एवं मन्त्रि- आमात्यादि स्थानरूप सर्व भूमिकाओं में यह यथार्थवादी रूप से माना जाता था और राजा ने भी इसी कारण अन्तः पुरादि जैसे स्थानों में आने जाने को इसे छूट देरखी थी. इसतरह राजा का अतिविश्वास पात्र बना हुआ यह चित्रसारथि सकल राज्यकार्य का प्रेक्षक भी बन गया था. छछ તેનુ નામ અવલેખન છે. નેત્ર જેમ પેાતાને વિષયભૂત થવા ચેાગ્ય પદાર્થોના પ્રાક હાય તેમજ તે પણ સૌ માટે સકલાના પ્રદર્શક હતા. भेभ: 'मेटि: प्रमाण' आधारः, आलम्बन चक्षुः ' એ જ વાતને વધારે સ્પષ્ટ કરવા માટે સૂત્રકારે ઉપમાવાચક ‘ભૂત’શબ્દ એમને લગાડીને ફરી આ શબ્દોની આ પ્રમાણે આવૃત્તિ કરી છે-એ મેઢિભૂત, પ્રમાણભૂત આધારભૂત, અને ચક્ષુભૂત હતા. એથી બધે-સધિ, વિગ્રહ વગેરે રૂપ "ધી જગ્યાએ અને મ`ત્રિ અમાત્યાદિ સ્થાનરૂપ સર્વભૂમિકામાં તે સાચી સલાહ આવનાર ગણાતે હતા. એથી રાજાએ પણ અંતઃપુર જેવાં સ્થાનામાં પણ તેને પ્રવેશવાની છૂટ આપી छीधी हुती. रान्तनो अतिविश्वासपात्र णनेो यो चित्र सारथि ग्राम सभस्त : रान्न्यકાર્યના પ્રેક્ષક પણ ખની ગયા હતા.
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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