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________________ सुबोधिनी टीका स. १६८ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्ण नम् ऽऽचार्यः शिक्षयिष्यतीति सम्बन्धः एवमग्रेऽपि संयोजना कर्तव्या । लेखो लिपि विषयभेदाद् द्विविधः तत्र लिपिः ब्रा-स्यादिभेदेनाष्टादशविधा. सा च समवायाङ्गसूत्रगताऽष्टादशसमवायोक्ता बोध्या। अथवा लाटादिदेशभेदतोऽनेकविधा भवति । पुनश्च वल्कलकाष्ठदन्तलोहताम्ररजतपापाणावाधारेपु लेखनोकिरणस्यूतव्यूतच्छिन्नभिन्नदग्धसंक्रान्तितोऽक्षरविन्यासरूपा लिपिरने कविधा भवति । विषयमाश्रित्य स्वामिभृत्यपितापुत्रकलत्रपतिगुरुशिष्यशत्रुमित्रादिविषया कार्य स्थौल्यंचैपम्यपतिवक्रत्वपदच्छेदादिभेदभिन्ना चानेकविधा भवति १. गणितम्पट्टिकादि प्रसिद्धमेकद्वयादि संकलनगुणभागादिरूपम् २. रूपम् लेप्यशिलासुवर्णरजतमणिवस्त्रचित्रादिलक्षणम् ३। नाटयम्-साभिनयनिरभिनयभेदभिन्न जो विज्ञान हो जाता है वह भी लेख ही है, इस लेख में अक्षरादिके लिखने में निपुण हो जाना यह-लेनकला है, यह लेख-लिपि, एवं-विषय भेदसे दो प्रकार का है. इनमें ब्राह्मी आदि के भेद से लिपि १८-प्रकार की है. यहविषय “समवायानसूत्र में १८-वें समवान में कहा गया है। अथवालाटादि के भेद से लिपि अनेक प्रकार भी होती है, पुनः वल्कल-काष्ठदन्तलोह-ताम्र-रजत-पापाण-आदि आधारों के ऊपर अक्षरों का लिखना, उन पर अक्षरों का टॉकी आदि से अङ्कित-(उकेरना) इत्यादिरूप से अक्षरविन्यासरूप लिपि अनेक प्रकार की है। विषय की अपेक्षा भी स्वामी-भृत्य-पितापुत्र-लत्र-पति-गुरु-शिष्य-शत्रु और-मित्रादि को विशय करने वाली जो लिपि है वहभी कृशता स्थलता आदिरूप से विन्यास की अपेक्षा अनेक प्रकार होती हैं १। गणितरूप कला गुणा-भाग, वीजगणित-रेखागणित आदि होती है २ । रूपकला-लेख्य, शिला, सुवर्ण, रजत-आदि के ऊपर चित्र को उतारनेरूप याવામાં કુશળતા મેળવવી તે લેખકલા છે. આ લેખ-લિપિ અને વિષયભેદથી બે પ્રકા२नी छे. मामा ग्राझी वगेरेना लेहथी १८ प्रारनी लिपि छ. • विषय 'समवायाङ्ग' સૂત્રમાં ૧૮ મા સમવાયમાં આવેલ છે. અથવા લાટાદિના ભેદથી લિપિના ઘણા પ્રકારે છે. भने १६४स, ४, तसोई, ताम्र, २०४त, पाषाण वगेरे आधा। ५२ अक्ष। લખવાં, તેમની ઉપર ઢાંકણથી ઢાંકવું વગેરે રૂપમાં અક્ષર વિન્યાસ લિપિ ઘણા પ્રકા२नी छ. विषयनी अपेक्षा ५५५ २वाभी, मृत्य, पिता, पुत्र, सत्र, पात, शु३, શિષ્ય, શત્ર અને મિત્ર વગેરેને વિશય કરનારી જે લિપિ છે તે પણ કૃશતા સ્થૂલતા વગેરે રૂપથી વિન્યાસની અપેક્ષાએ અનેક પ્રકારની હોય છે ૧,ગણિતકલા ગુણા–ભાગ-બીજ शशित; २ गणित वगैरे ४२नी हाय छ. २,३५४ा-ज्य, Aal, सुवर्ण, २०४d, વગેરેની ઉપર ચિત્રને ઉતારવારૂપકે લેખન રૂપ હોય છે. ૩નાટયકલા અભિનય સહિત,વગર
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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