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________________ राजनीयसूत्रे टीका- 'तणं पएसी राया' इत्यादि - ततः खलु प्रदेशी राजा केशिकुमारश्रमणम् एवमवादीत् - हे भदन्त ! यूयं खलु अतिच्छेका :- अवसरज्ञानातिनिपुणाः, दक्षा - कार्यसम्पादनकुशलाः, यावत् - यावत्पदेन 'प्राप्तार्थाः कुद्धाः कुशलाः महामतयः विनीताः विज्ञानप्राप्ताः' इत्येषां पदानां सङ्ग्रहः एप व्याख्या पूर्व गता । उपदेशलब्धी : - प्राप्तगुरूपदेशा:, अतो हे भदन्त यूयं शरीरात् जीवमभिनिवर्त्य -- निष्काश्य करतले - हस्ततले स्थितम् आमलकमित्र मम उपदर्शयितुं समर्था: - - शक्ताः । ३०८ और छद्मस्थ इन्हें जानता देखता नहीं है तो हे प्रदेशिन् ! तुम श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, इत्यादि । टीकार्थ स्पष्ट है - ' दुक्खा जाव उपएसलद्धा' में जो यावत् पद आया है उससे यहां 'प्राप्तार्थाः कुद्धाः कुशलाः, महामतयः, विनीताः, विज्ञानमाप्ताः ' इन पदों का संग्रह हुआ है, इन पदों की व्याख्या पहिले की जां चुकी है। उस काल और उस समय में का तात्पर्य है जब मदेशी राजाने केशीकुमारभ्रमण से शरीर से निकालकर जीव को हस्तामलकवत् दिखाने की बात कही तब | 'एयंत जात्र तं त' में जो यावत् पद आया है उससे यहां 'व्येजमानं, चलन्तैः स्पन्दमानं, घट्टमानम्' इन पदों का संग्रह हुआ है । इन पदोंकी व्याख्या इसी सूत्र में पहिले की जा चुकी है. इन पदों में वायुकाय एकेन्द्रिय जीव है - अतः वह रूप युक्त है, कर्म सहित है, रागसहित है, मोहसहित है, नपुंसक वेद सहित है, औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण इस चार टीअर्थ स्पष्ट ४ छे, 'दुक्खा जाव उपएसलद्धा' भां ? यावत् यह आवेस छे. तेथी गडी' 'प्राप्तार्थाः बुद्धाः कुशलाः महामतयः, विनीताः विज्ञानप्राप्ताः, या पहोनो संग्रह थयो छे मा पहोनी व्याच्या चहेतां श्वामां भावी છે. તે કાળે અને તે સમયે જે કહેવામાં આવ્યું છે તેની સ્પષ્ટતા આ પ્રમાણે છે કે જ્યારે પ્રદોશી રાજાએ કેશી કુમાર શ્રમણુને શરીરમાંથી બહાર કાઢીને જીવને હસ્તાभसम्वत् मतापवानी वात उडी त्यारे (एयंत जात्र त त) भां ? यावत् यह छे तेथी अडी' ""येजमानं, चलन्त स्पन्दमान, घट्टमानम्" मा होना सौंथड થયા છે. આ પટ્ટોની વ્યાખ્યા આ જ સૂત્રમાં પહેલાં કરવામાં આવી છે. આ પદોમાં પ્રત્યયકૃત જ વિશેષતા છે. ધાવ કૃત વિશેષતા નથી વાયુકાય એકેન્દ્રિય જીવ છે. એથી તે રૂપયુકત જીવ છે. કસહિત છે, રાગસહિત છે, માહસહિત છે, નપુંસક वेह सहित छ, मोहारिए, वैडिय, तेन्स भने अर्भशु मा यार शरीरवाणी है. हृणु.
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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