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________________ ३०७ सुबोधिनीटीका. सून १५१ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् स्तिकाय म्३, जीवमशरीरबद्धम् ४ परमाणुपुद्गलं५, शब्दं६, गन्धं७, वातम्८, अयं जिनो भविष्यति वा नो भविष्यति९, अयं सर्वदुःखानामन्त करिध्यति वा नो वा करिष्यति१० । एतानि चैव उत्पन्नज्ञानदर्श नधरः अहन जिनः केवली सर्वभावेन जानाति पश्यति, तद्यथा-धर्मास्तिकाय यावत् नो वा करिष्यति, तत् श्रद्धेहि खलु स्व' प्रदेशिन् ! यथा-अन्यो जीवः तदेव९ ॥ मू० १५१॥ सव्वभावेण न जाणइ, न पासइ) क्यों कि हे प्रदेशिन् ! छद्मस्थ जीव इन इन दश स्थानों को सर्व भाव से नहीं जानता है और नहीं देखता है (त जहा) वे दशस्थान इस प्रकार से हैं (धम्मत्थिकाय१, अधम्मत्थिकाय२, आगोसस्थिकार्य३, मोव' असरीरबद्ध ४, परमाणुपोग्गल ५, सद६, गध वाय'८ अयजिणे भविस्मइ वा णो भविस्सइ९, अयं सव्वदुक्खाण अंतो करिस्सइ नो वा करिस्सइ१०) धर्मास्तिकाय १, अधर्मास्तिकाय२, आकाशा स्तिकाय३, अशरीर बद्ध जीव४, परमाणुपुद्गल५. शब्द६, गंध, वाता. यह जिन होगा, या नहीं होगा९, और यह समस्त दुखों का अन्त करेगी या नहीं करेगा१० (एयामि चेव उप्पणनाणदसणधरे अरहा निणे' केवली सव्वभावेण जाणइ पासइ) इन्हें तो उत्पन्न ज्ञान दर्शन धारी अन्ति जिन केवली सर्व भाव से जानते हैं। (त जहा धम्मस्थिकाय जाव नो वा करिस्सइ-त सदहाहि ण तुमपएसी! जहा अन्नो जीवो तं चेव) अत::: जंब अर्हन्त जिन केवली धर्मास्तिकायादि१० स्थानों को जानते देखते हैं: समापथी adyat नथी भने नेता नथी. (त जहा) ते ६शयाने या प्रमाणे छ. (धम्मत्थिकायं १, अधम्मत्थिकार्य २, आगासस्थिकार्य ३, जीवं असरीरवाद्धं ४, परमाणुपोग्गल ५. सद्द६ गंध ७. वाय ८, अय जिणे भविस्साइ वा णो भविस्साइ ९, अयं सावदुक्खाणं अंतो करिस्सइ १०.) भौतिय' : ૧, અધર્માસ્તિકાય ૨, આકાશાસ્તિકાય ૩, અશરીર બદ્ધ જીવ ૪, પરમાણુ પુદ્ગલ ५, २०४६, ७, पात ८. मा नि नहि थशे. ८. मन मा समस्त हुमाना गन्त ४२ ॐ नहि ४२. १०. (एमाणि चेव उप्पण्णनाणदसणधरे । अरहा जिणे केवली सवभावेण जाणई पासइ) मेमने तो अपन्न शान ४शनधारी मलिनी समाथी त छ भने तुवे छ. (तं जहा ' धम्मस्थिकायं जाव नो वा करिस्सइ त सहवाहिणं तुमं पएसी! जहा अन्नी जीवो त चेत्र) मेथी न्यारे मांडत पक्षी घमास्ताय वगेरे १० स्थाना ને જાણે છે જુવે છે અને છઘરથ એમને જાણતા નથી તેમજ જેતા પણ નથી. . તે હે પ્રદેશિન ! તમે શ્રદ્ધા કરો કે જીવ અન્ય છે અને શરીર અન્ય છે. ઈત્યાદિ.
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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