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________________ सुबोधिनी टीका सु. १४६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीव प्रदेशिराजवर्णनम == ૨૨ गृह्णाति गृहीत्वा शर कराति शरेण अणि मध्नाति ज्योतिः पातयतिः ज्योतिः संधुक्षते तेषां पुरुषाणामशनं साधयति ततः खलु से पुरुषाः स्नाताः कृतबलिकर्माणः यावत् प्रायश्चित्ताः यत्रैव स पुरुषः तत्रैव उपागच्छन्ति, ततः खल स पुरुषः तेषां पुरुषाणां सुखासनवरगतानां तद् विपुलमशन पान खादिमं रूप कार्य से निश्चिन्न हो जाइये, यावत् कौतुक मंगलरूप प्रायश्चित्त कर लीजिये और फिर जल्दी आजाइये तबतक मैं आपलोगों के लिये भोजन तैयार करता है । ऐसा कहकर उसने अपनी कमर कसी आर (फरसु गिors) कुल्हाडी को उठाया (सर करेड़, सरेण अरणि महेइ) उससे पहिले उसने लडकी को इतना छीला कि जिससे वह वाण के जैसी लाई के रूप में हो गई. फिर उससे उसने अरणिकाष्ठ का मंथन किया (जोड़ पाडेई) मंथन करने से अग्नि उसमें प्रकट हो गई (जोई संधुवखे :). प्रकट हुई उस अग्नि को उसने पवन वगैरह आदि साधनों से विशेष चैतन्य किया. अर्थात् धोंका ( तसि पुरिसा असणं साहेड) अग्नि के तैयार हो जाने पर फिर उसने उन सब पुरुषों का भोजन बना दिया (एण ते पुरिसा व्हाया कपबलिकम्मा जाव पायच्छित्ता जेणेव से पुरिसे तेणेत्र उत्रागच्छइ) इतने में वे पुरुष स्नान करके, बलिकर्म - काकयादि को अन्नादि का भाग दे करके यावत्-कौतुक मंगलरूप प्रायश्चित्त करके उस स्थान पर आये - थीते जाए लेवी शसाक्ष કૌતુક મ ́ગળરૂપ પ્રાયશ્ચિત્ત કરી લે. અને પછી જલદી અહીં ઉપાસ્થિત થઇ જાવ. આટલામાં હું તમારા માટે ભાજન તૈયાર કરૂ છુ. આમ કહીને તેણે પોતાની કેડ जांधी ने (फर' 'गण्ड) डुडाडी हाथभां सीधी (मरं करेड सरेण अरणि महेड) तेथे सौ पडेसां साम्डाने खेवी शेते छोट् वु थयुं पंछी तेनाथी तेथे भरष्टितुं मंथन यु (जोड़ पाडे) मंथन १२वाथी तेभांथी माग्न आउट थ गयो (जोड़ संधुकखेइ ) अउट थयेस ते व्यग्निने पवन वगर- साधनाथी तेने सविशेष अनवसित यो (तमि पुरिसाण असणं साइ) अग्नि क्यारे अवक्षित था गयो त्यारे तेथे ते घर सोडी भाटे सोन तैयार . (तएण ते पुरिसा पहाया कवबालकम्मा जान पायाच्छता जेणेव से पुरिसे तेणेव उवागच्छड़) भाटलाभां ते मघा भाणुसे स्नान रीने, मसि કાગડા વગેરેને અન્ન વગેરેનો ભાગ આપીને યાવત કૌતુક મંગળરૂપ પ્રાયશ્ચત્ત કરીને ते नभ्यामे 'यावी गया. न्यां ते पु३ष हुतो. तए णं से पुरिसे तेमिं पुरिमाणं सुहास वरयाणं तं विरलं असणं, पाणं खाइमं साइमं उवणे तपणं ते पुरिमा "
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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