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________________ २५६ राजनीयम् कस्मात् ? भदन्त ! तस्व पुरुषस्य जीर्णानि उपकरणानि भवन्ति ममेशिन् ! स एव पुरुषः जीर्णो यावत्धापरिक्ान्तः जीर्णोपकरणः ना मधुः एक महान्तमयो भार वा यावत् परिवोदुम् तत् श्रद्धेहि ख त्वं प्रदेशिन ! यथा - अन्यो जीवः अन्यत् शरीरम् ६ | || मृ० १४२ ॥ 3 नहीं है- अर्थात् वही युवादि विशेषणों वाला पुरुष जीर्णादि विशेषणांवाली विङ्गिकादि (ड) द्वारा विशाल लोहार को वहन नहीं कर सकता है। केशीकुमार श्रमणने पूछा- (कम्हा) वह ऐसा किस कारण से नहीं कर सकता है। तब प्रदेशीने कहा - ( भंते ! तस्स पुरिसम जुग्णाई' उनगरणाई भवति) हे भदन्त ! लोह भार आदि को वहन करने के जो उसके साधन हैं-वे जीर्ण हैं । (पएसी से चैव पुरिसे जुन्ने जाव छापरिकिलंते जुन्नोवगरणे पभू एंग मह अयभार वा जाव परिवत्तिए - तं सद्दहाहि गं तुम पएसी अन्नो जीवो अन्नं सरीर) पुनः केशी ने मदेशी से पूछा- हे प्रदेशिन् ! यदि वही पुरुष जीर्ण, वृद्ध यावत् १४१चे सूत्र में कथितविशेषणोंवाला एवं क्षुधा परिक्लान्त हो जाता है वह जीर्णोरकरण वाला होने से शरीर पल वृद्धि आदि उपकरणों की जीर्णतावाला होने से एक विशाल अयोआर को यावत् शीशक भार को वहन करने में समर्थ नहीं होना है युवावस्था और वृद्धावस्था में जीव की समानता होने पर भी उपकरण के अभाव से वृद्ध भार को वहन करने के लिये समर्थ नहीं होता है. इस कारण हे प्रदेशिन ! આ અર્થ સમ નથી. એટલે કે તેજ યુવા વગેરે વિશેષણાથી યુકત પુરૂષ છ વગેરે વિશેષણાથી યુકત વિહંગિક (કાવડ) વગેરે વટ વિશાળ લાખડના ભારને વહુન ન કરી શકે તેમ છે. કેશીકુમાર શ્રમણે કહ્યું. (1) તે આમ શા કારણથી નહિ मेरी शडे ? त्यारे प्रदेशी (भंते! तरस पुरिसम्स जुण्णाई उनगरणाह भवंति) हे लढ'त! लोग उना लार वगेरेने वहन श्वानाने साधनों है ते छर्छु है. (१ एसी से चेत्र पुरिसे जुन्ने जात्र छुकापरिकिल ते जुन्नोवगरणे नो पभू एगं मई अयभारं वा जाव परिवत्तिए - तं सदहाहि मं तुमं पएसी अन्तो जीवो अन्नं सरीरं) इरी देशीये प्रदेशीन या प्रमाणे प्रश्न हे अहेशिन् ! જે તે જ પુરૂષ જીણું વૃદ્ધ યાવત્ ૧૪૧ માં સૂત્રમાં આવેલ વિશેષણેાથી સંપન્ન હાંય ક્ષુધા પરિકલાંત થઇ જાય છે તે તે છ પકરણવાળા હેાવાથી-શરીર બળ બુદ્ધિ વગેરે ઉપકરણા છ હાવાથી એક વિશાળ લેાખડના ભારને યાવત્ શીશકભારને વહન કરવામાં સમથ થઇ શકે તેમ નથી. યુવાવસ્થામાં અને વૃદ્ધાવસ્થામાં જીવની સમાનતા હેાવા છતાં એ ઉપકરણના અભાવે વૃદ્ધ ભારને વહન કરવામાં સમર્થ થઈ
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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