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________________ सुबोधिनी टीका सू. १४१ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २५ महान्तमयोभारकं वा यावत् परिवोदुम्, यदि खलु भदन्त ! स एव पुरुषः जीर्णः जराजर्जरितदेहः यावत् परिक्लान्तः प्रभुः एकं महान्तमयोभारकं वा यावत् परिवोदुम्. तदा खलु श्रध्यां तथैव, यस्मात् खलु सदन्तं ! स एव पुरुषः जीर्णों यावत् लान्तः नो मथुरेकं महान्त मयोभारं वा यावत् परिवोढुं तस्मात् लुप्रतिष्ठता मे प्रतिज्ञा तथैव ॥४० १४१॥ किसीए, पिवासिए, दुबले, छुहाकिलते पभू एग मह अयभारगं बा जाव परिवहित्तए) दांतों की पाक्ति जिसकी विरल हो जाती है, शटित हो जाती है, तथा काल, श्वास आदि से जो सर्वदा पीडित बना रहता है, और इसीसे जो कश एवं अशक्त वन जोता है, उठ करके पानी पीने तक भी शक्ति जिससे जाती रहती है, जो बिलकुल शक्ति रहित हो जाता है, भूख से जो-पीडित बन जाता है ऐसा वह पुरुष एक विशाल लोहे के भार को, पुक के भार को या शीशा के भार को वहन करने के लिये समर्थ नहीं रहता है। (जइ णं मंते ! सच्चेव पुरिसे जुन्ने जराजजरियदेहे जाव परिकिलंते पभू एग महं अयभारं वा जाव परिवहित्तए तो णं सदहेज्जा तहेव) यदि हे भदन्त ! वही पुरुप जीर्ण होने पर, जरा से जजेरित देह होने पर यावत् क्षुधा से परिक्लीन्त होने पर एक विशाल लोहमार को यावत वहन करने के लिये समर्थ बना रहता तो मैं आपके इस कथन पर कि जीव शरीर से भिन्न है और शरीर जीव से भिन्न है जीव शरीररूप नहीं हैं, शरीर जीवरूप नहीं है विश्वास कर लेता (जम्हा ण પંકિત વિરલ થઈ જાય છે, શટિત થઈ જાય છે, તેમજ કાસ, શ્વાસ વગેરેથી જે હંમેશા પીડિત રહે છે અને એથી જે કૃશ અને દુર્બલ થઈ જાય છે, ઉભા થઈને પાણી પીવાની પણ જેનામાં તાકાત હોતી નથી જે સાવ અશકત થઈ જાય છે, ભૂખથી જે પીડિત થઇ જાય છે એ તે પુરૂષ એક મોટા લોખંડના ભારને કે શિશાના मारने पडन ४२वामी समर्थ थ शत नथी. (जएण भते ! सच्चेव पुरिसे जुन्ने जराजज्जरियदेहे जाव परिकिलते पभू एग' मह अयभार वा जाव परिवहित्तए तो ण सदहेज्जा तहेव) B महत ! ५३५ ॥२॥ હોવા છતાં એ ઘડપણથી જર્જરિત શરીરવાળા હોવા છતાં એ યાવતું ભૂખથી પરિકલાંત હોવાં છતાં એક ભારે જોખંડના ભારને યાવત્ વહન કરવામાં સમર્થ થઈ શકત તો હું તમારા જીવ શરીરથી ભિન્ન છે અને શરીર જીવથી ભિન્ન છે, જીવ શરીર રૂપ નથી અને શરીર જીવ રૂપ નથી આ કથર પર વિશ્વાસ કરી લેત,
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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