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________________ सुबोधिनी टीका. सू. १३७ सूर्याभिदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्ण' नम् ૩. * एवं खलु भदन्त ! अहमन्यदा कदाचित् वाह्माणम् उपस्थानशालायां यात् विहरामि ततः खलु मन नगर गुमिकाः ससाक्ष्यं यावद् उपनयन्ति ततः खलु अहं तं पुरुष जीविताद् व्यपरोपयामि, व्यपरोष्य अयस्कुम्भ्यां प्रक्षे पयापि अयोमयेन पिधानकेन विधापणमि यावत् आत्मप्रत्ययः पुरुषैः रक्षयामि ततः खलु अहं अन्यदा कदाचित् यत्रैव सा अयस्कुम्मी तत्रैव कुमारसमणं एवं वयासी) केशीकुमारश्रमण से ऐसा कहा - (अस्थि णं भंते! एखा पण्णाओ उनमा) हे सदन्त ! यह आपके द्वारा कही गई उपमा - (दृष्टान्त) बुद्धिविशेष रूप है (इसेण पुण कारणेण णो उ० ) किन्तु इस वक्ष्यमाण कारण से मेरे मनमें जीव और शरीर का भेद नहीं आता 1- युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता है । इसी बात को अब मदेशी राजा प्रकट करता है . - ( एवं खलु भते ! अहं अन्नया कमाई बाहिरियाए उवद्वाणसालाए जान विराम) हे भदन्त ! मैं एक दिन बाहर की उपस्थान शाला में यावत् बैठा हुआ था (तपूर्ण समं णगरगुप्तिया ससक्खं जाव उवणेति) उस मेरे नगर रक्षकोंने साक्षिसहित यावत् एक चोर को उपस्थित किया (तपणं अहं तं पुरिसं जीविद्यायो ववरोवेमि) मैने उन चोर को प्राणरहित कर दिया (वरीत्ता उकु भीए पक्खिवावेसि अउमएणं पिाणयणं पिहावेसि ) माणरहित करके फिर मैने उसे अयस्कुमी (लोहेकी कोठी) में अपने पुरुषों से डलवा दिया (जा आयपच एहि पुरिसेहिं रक्खावेथि) यावत् फिर मैंने अपने आत्मरक्षक पुरूषों का वहां पहरा नियुक्त कर दिया. (तएण अहं अ- (अस्थि भंते ! एसा पण्णायो उनमा) हे लहंत ! था तभाश पडे प्रयुक्त उथभा (हृष्टांत) शुद्धि विशेष ३प 9. (हमेण पुण कारणेणं णो उ०) એનાથી મારા મનમાં જીવ અને શરીરની ભિન્નતાના વિચાર ઉત્પન્ન થા નથી સને આ વાત યુકિત પણ લાગી નહિં. એજ વાત હવે પ્રદેશી રાજા આ પ્રમાણે अ१८ १२ छ . (एवं खलु भंते ! अहं अन्नया कयाr वाहिरियाए उवहाण सालाए - जान विहरामि ) हे लहांत ! हुँ थोङ दिवस महारनी उपस्थान शाणामां मेठी हुतो. (तए णं ममं णगरगुत्तिया ससक्खं जान उबणें ति) નગર રક્ષકા એક સાક્ષિત સહિત યાવતુ એક ચારને મારી સામે ઉપસ્થિત र्थी (तएं णं अह तं पुरिसं जीविया रोम) में ते थारने भारी नाथ्यो, ( चवरोवेer कुंभीए पक्खिवाda are पिाणएणं पिहावेमि ) મારીને તેને મે" લાખના નળામાં પોતાના માણુસા ન"ખાવી દીધા. (11 आयपचइएहिं पुरिसेहिं रक्खावेमि) यावत् पछी में त्यां आत्मरक्षः पुरुषाने સાશ
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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