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________________ % 3D ---१६४----------------- ..... ... ... ..... .राजप्रश्नायसूत्रे दीत-प्रकटमवदव-चित्र ! जडाः खलु जड पर्युपासते, यावत्-यावच्छन्देन पूर्वोक्त सर्व ग्राह्यम्, ब्रवीति उच्चस्वरेण वदति येन कारणेनाह स्वस्यामपि= स्वकीयायामपि उद्यानभूमौ सम्यक् सम्यक्प्रकारेण प्रकामम्-अतिशयं । प्रविचरितु संचरितुं नो शक्नोमि=न समर्थो भवामि ॥मृ० १२६॥. मूलम्-तएणं से चित्त सारही पएसिरायं एवं व्यासी-एसणं सामी। पासावच्चिज्जे केसा नामं कुमारसमणे जाइसंपपणे जावं चउनाणोवगए अधोऽवहिए अण्णजीविए । तएणं से पएसी राया चित्तं सारहिं एवं क्यासी-आहोहियं णं वयासि चित्ता! अण्णजीवियत्त णं वयासि चित्ता ! ? हंता ! सामी ! आहोहियं णं क्यामि अण्णजीवियत्तं गं वयामि । अभिगमणिज्जो णं चित्ता ! एस पुरिसे ? हता! सामी ! अभिगमणिज्जे । अभिगच्छामोणचित्ता ! अम्हे एयं पुरिसं? हंता ! सामी ! अभिगच्छामो ।सू० १२७॥ . छाया-ततः खलु स चित्रः सारथिः प्रदेशिराज मेवमवादीत-एप खेल स्वामिन् ! पार्थापत्यीयः केशी नामकुमार श्रमणः जानिस पन्नः यावत् चतु बाद में यह चित्र सारथि से प्रकटरूप में इस तरह से कहने लगा-चित्र! जद जड की उपासना करते हैं इत्यादि यहां यावत् शब्द से पूर्वोक्त सत्र कथन जो यह जोर२ से इस मनुष्य परिषदा के बीच में बोल रहा है यहाँ तक का ग्रहण हुआ है। इसी कारण मैं अपनी. भी इस उद्यानभूमि में ठीक तरह से घूमः नहीं पा रहा हूं ।। मू० १२६ ॥ . 'तए ण से चिरों सारही' इत्यादि। . . . : ___ मंत्रा--(तए ण से चिते.. सारही पएंसिराय एवं बयासी) तंब પછી તે પ્રટરૂપમાં ચિત્ર સારથિને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યું કે હું ચિત્ર ! જ. જંડની ઉપર્સના કરે છે વગેરે. અહી યા શબ્દથી પૂર્વોકત બંધું કથન-કે જે આ મોટા સાદે મસુષ્ય પંરિષદની વર બેલી રહ્યું છે. અહીં સુધીનું ગ્રહણ કરવું જોઈએ. એથી જ હું આ મારી જ ઉદ્યાન ભૂમિમાં સારી રીતે હરીફરી શકતું નથી. સૃ. ૧૨ 'तए ण से चित्ते सारही' इत्यादि । सूत्रार्थ-(तए ण से चित्ते सारहों पएसिराय एवं वासी) त्या . -
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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