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________________ १३६ राजप्रश्नोयसूत्रे चतुर्भिः स्थान चित्र ! जीवा के बलिप्रज्ञप्त' धर्म लभते श्रवणतायै, नद्यया (१) आरामगत वा उद्यानगतं वा श्रमणं वा माहनं वो बन्द ते नमस्यति यावत् पर्युपास्ते, अर्थान् यावत् पृच्छति, एतेन स्थानेन चित्र ! जीवः केवलिप्रलप्तं धर्म लभते श्रवणतायै, एवं (२) उपाश्नयगतम् । (३) गोचराग्रान भात वा पकार जो श्रमण अथवा माहन के साथ संगत हो जाता है वहां पर भी यह श्रमण अथवा मान सुझो पहिचान न लें इस हेतु से जो अपने आपको हाथसे चा वस्त्र से या छत्र से आत कर लेना है ए। उनले प्रश्नादि कुछ भी नहीं पूछता हैं हे चित्र ! इस चतुर्थ कारण से भी जीव केवलिमज्ञप्त धर्म को सुन नहीं पाता है. (४) इस प्रकार हे चित्र ! ये चार कारण हैं कि जिनकी वजह से यह जीव केवलो भगवान् द्वारा कहे गये धर्म को सुन नहीं पाता (चउर्हि ठाणेहिं चित्ता! जीवे के वलिपन्नत्त धम्म लभइ सवणयाप) हे चित्र! चार कारणों से जीव के वलि जप्त धर्म को सुन सकता है (तं जहाआरामगयं वा उजागगयं वा समणं वा माहणं वा वंदड, नमसइ जाव पज्जुवासइ) वे चार कारण इस प्रकार से हैं-आरामगत या उद्यानगत श्रमण को या माहण को जो वंदना करता हैं नमस्कार करता है, या यत् उनकी पर्युपासना करता है (अट्ठाईजाब पुच्छह) अर्थो को यावत् पूछता है. (एएण ठाणेण चित्ता!. जोवे के वलिपन्नत्तं धम्म लभइ सवणयाए) इस कारण को लेकर हे चित्र ! वह जीव केवलि प्रज्ञप्त धर्म को सुन सकता (१) है, एव' (उक्स्सगये) इसी प्रकार जो जीव उपायों में आये हुए श्रमण જે શ્રમણ કે માહણની સામે આવી જતાં તે શમણ કે માહણ તેને ઓળખી લે નહિ તે માટે જે પિતાની જાતને હાથવડે, કે વય વડે કે છત્રવડે છૂપાવી લે છે અને તેમને પ્રશ્ન વગેરે કંઈ પૂછતું નથી તે ચિત્ર! આ ચેથા કારણથી પણ જીવ કેવલિ પ્રજ્ઞપ્ત ધર્મનું શ્રવણ કરી શકતો નથી.(૪) આ પ્રમાણે છે ચિત્ર. આ ચાર કારણેને दीधे व वलीमापान 43 सा धर्म व ४२री -शत नथी. (चउहि ठाणेहि चित्ता!'जीवे' केवलिपन्नत धम्म लभासवणयाए) रयित्र! यार अशाथी पति-प्रशस्त धनु या. रीश 2. (न' जहा--आरामगय वा उज्जाणगय वा समण वा माण वा, वंदई, नमसइ जांच पज्जुवामइ) ते ચાર કારણે આ પ્રમાણે છે.-આરોમમાં પધારેલા કે ઉદ્યાનમાં પધારેલા શ્રમણને કે भाने २ वहन ४२ छ नम२४१२ ४२ छ, यावत् तेमनी युपासना ४३ छ: (अट्ठाइ जाव पुच्छइ) अर्थाने याक्तू पूछ छ. (एएण ठाणेण चित्ता! जीवे केवलि पन्नतं धम्म लभइ सवणयाए) मा २४ने सीधे त्रि! ते Bale अंशत
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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