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________________ ६. सुबोधिनी टीका सु. ११३ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवतीय प्रदेशी राजवर्णनम् ... ६६ छाया--ततः खलु स चिमः सारथिः श्रमणापासको जातः अभिशतः जीवाजीव उपलब्धघुपयपाप आलसंवरनिजे राक्रियाऽधिकरणवन्धमोक्षकुशलः असाहाय्यो: देवासुरनाम यक्षराक्षसकिन्नरकिरपुरुषगगन्धर्व महोरगादिभिः देवगणैः नग्रंथात् ... प्रवचनात् अनतिक्रमणीयः, -न-थे प्रवचने निशदितो निष्कासितो निर्विचिकित्सो लब्धार्थी गृहीताः पृष्टार्थः अधि: ण. ला विन लारहा' इत्यादि . . . सूत्रार्थ-(तएण से चिो सारही समणोधातए जाए) अब वह चित्र सारथि असणोपालक हो गया. (अहिगय जीवाजीये. उवलद्धपुण्यपावे, आसवसंवरनिनारकिरियाहिंगरणव धमोक्खकुलले.) जीव और अजीव तत्व के वह ज्ञाता बन गये, पुण्य एवं पाप के स्वरूप को जानने लगे, आसक स वर, निजा , क्रिया, अधिकरण, वध और मोक्ष इनमें कुशल हो गये। अर्थात् इनके स्वरूप का उसे बोध हो गया. (असहिज्जे) कुत्तीधिकों के कुतर्क के खण्डन में पर की सहायता की अपेक्षा वाला नहीं रहा (देश सुरणागजक्खरख सकिनकिंपुरिसगालगंधवमहोरगाइहि देवगहेहि निगाथाओ पावयणाओ अणइकमणिज्जे, निग्गाथे पावयणे निस्सकिए) देवो से असुरों से नागों से, यक्षों से राक्षसों से, किंपुरुषों से, गरुड़ों से गधों से, सहोरगों से-हन सब देवगणों से-वहनिर्ग्रन्थ प्रवचन की श्रद्धा आदि से, अनतिक्रमणीय हो गया अर्थात् ये सब देवगण भी उसे निर्गन्धप्रवचन से शेडा सा भी विचलित करने के लिये समर्थ नहीं हो सके. वह (निग्ग थे पाव 'तए ण से चिते सारहो' इत्यादि। ... सूत्रार्थ-(तए ण से चिभे सारही समणोवासए जाए) हुवे त्रि सायि अभपास गये तो. (अहिंगयजीवाजीवे, उबलद्धपुण्गपाने, आसयस'वरनिन्जकिरियाहिगरणधमोक्खकुसले) 4 भने म तवत' જ્ઞાતા થઈ ગચો. પુણ્ય અને પાપના સ્વરૂપને તે જાણવા લાય, એ સંવર, નિર્જરા ક્રિયા, અધિકારણ. બંધ અને મેક્ષમાં તે કુશળ થઈ ગયે એટલે 32 धाना २१३५ ज्ञान तन मथु (असहिज्ज) हुताािना तना मनमा तn pon-l. भनी अपेक्षा न २७. (देवासुरणागजक्खरक्खसकिनर किंपुरिसगहलग धब्धमहोरगाई हिं देवगहेहिं . निगथाओ पावणाओ अणइक्कमणिज्जे, निग्गथे पाक्यणे निस्सकिए) ४थी, असुरोधी, नागोथी, થાથી રાક્ષસેથી કિન્નરથી કિં પુરૂષથી ગરુડેથી ગંધથી મહારગોથી–આ બધા દેવગણેથી તે નિગ્રંથ પ્રવચન પર અતી શ્રદ્ધાને લીધે અનતિ મણીય થઈ ગયો. એટલે કે આ બધા દેવગણે પણ તેને નિગ્રંથ પ્રવચન પરથી જરાએ વિચલિત કરી
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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