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________________ . राजप्रश्नीयसूत्रे विपुल धनकनकरत्नमणिमौक्तिक शङ्खशिलामवालसत्सारस्वापतेयं विच्छ, विगोप्य दान दत्त्वा, परिभाज्य मुण्डा भृत्वा अगारात् अनगारितां प्रत्र. जन्ति; नो खलु अहं तावत् शक्रोमि त्यक्त्वा हिरण्य तदेव यावत् प्रव्रजितुम्। अहं खलु देवानुप्रियाणाम् अन्तिके पश्चाणुव्रतिकसप्तशिक्षातिक' द्वादशविधं गृहिधर्म प्रतिपत्तुम् । यथासुख देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्ध कुरु । ततः और इश्य पुत्र हिरण्य को छोडकर, सुवर्ण को छोडकर एवं', धन धान्य, वल, वाहन, कोश, कोष्ठागार; पुर और अन्तःपुरं को (चिच्चा): छोडकर (विंउलं धंणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पबालसनसारसावए ज, विग्छ. डिज्जा, विगोवइत्ता, दाण दाइत्ता) तथा विपुल, धन, कनक, रत्न मौक्तिक • शंख शिलाप्रवाल एव सत्सारस्वापतेय को छोडकर. तथा , उन सबको विशाल प्रमाण में दीन दरिद्र आदिकों के लिये वितरित कर (परिभाइत्सा) पुत्रादिको में विभक्त (विभाग) कर (मुंडा भविता अगाराओ अणगारिय पञ्चय ति) बाद में मुंडित, होकर के अगार अवस्था को धारण करते हैं: (जो खलु अह ता संचाएमि, चिच्चा हिरण त चेव जांच पचहत्तए), वैसा में हिरण्य आदि को छोडकर दीक्षा धारण करने के लिये समर्थ नहीं है, (अहंण' देवाणुप्पियाण अंतिए पंचाणुव्वइय, सत्तासिक्खावइय दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जितए) में तो आप देवानुप्रियं के पास पांच अणुव्रत. वाले एवं साततशिक्षा व्रतवाले इस तरह १२ प्रकार के गृहस्थ धर्म को धारण कर सकता हु । (अहासुह देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेहि) आप હિરણ્યને ત્યાગ કરીને અને ધન, ધાન્ય, બળ, વાહન, કોશ, કોઠાર, પુર અને अत:पुर-२शुवास (चिच्चा) ना त्या ४शन (विउलंधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलपवालसंतसारसांवएज्ज, विच्छडिज्जा, बिगोवत्ता, दाणं दाइत्ता તેમજ વિપુલ ધન, કનક, રન, મૌતિક શંખ શિલા પ્રવાલ અને સત્સાર સ્વાયતેય ને ત્યાગ કરીને તેમ જ પુષ્કળ પ્રમાણમાં દીનદરિદ્ર વગેરે લોકોને આપીને (परिभाइत्ता) पुत्राहिम बयान (मुडा भवित्ता अगाराओ अगगारिय पव्यय ति), त्या२ मा भुडित धन म॥२ अवस्थामाथी मन॥२ २भवस्थाने धारण ४२ छ. (णो खलु अहं तासचाएमि, चिच्चा हिरण्ण' त चेव जाव पवइत्तएं) तेभ हिरण्य वरना त्या शन दीक्षा पा२३ ४२वामां असमर्थ छु: (अहं ण देवाणुप्पियाण अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइय दुवालसविहीं गिहिधम्म पडिवज्जित्तए) आपश्री पांसथी हुँ त पांय मनुव्रतवाणा भने અને સાત શિક્ષાત્રતવાળા આમ ૧૨ પ્રારા ગૃહસ્થ ધર્મને સ્વીકારી શકું છું. ' (अहामुह देवाणुपियाँ !"मा पंडिव करेंहि) भा५ हेवानुप्रियने 2-14
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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