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________________ লমাখন उपशाम्यन्ति, उपशम्य द्वितीयमपि वक्रियसनुयानेन समवन्नतिन, समवहत्य अभ्रवादलकानि विकुर्वन्ति, विकृत्य स यथानामकः भृतिकदारक: स्थान तरुणः यावर शिल्पोपगतः एकं महान्तं दकबारक चा दकस्थालक वा दककलश वा ककुम्भक चा गृहीवा रायाङ्गणं वा यावत् उद्यानं पा अत्वरित यावत् सर्वतः समन्तात आवत् एवमेव तेऽपि सूर्याभस्य देवस्य उपसमंति, उपसमित्ता दोच्चापि वे उचिवसमुग्याएणं समोहगंति) पक्षिप्त करके फिर वे शीघ्र ही उपशान्त हो गये, उपशान्त होकर फिर उन्होंने दवारा भी वैक्रिय समुद्घात किया (लमोहणिना अभबद्दल ए विउव्वंति) वक्रिय समुदघात करके फिर उन्होंने जल जिनले बरसे ऐसे मेघों की विकुर्वणा की (विउन्धित्ता-से जहा नामए भइगदारए सिया, तरूगे जाव मिप्योरगर एगं महं दगवारगं वा दगथालगं वा दगकलसग वा दगकुंभगवा) विकुर्वणा करके फिर उन्होंने उन अचित्त जल से भरे हुए मेघों को बरसाया ऐसा सम्बन्ध यहां लगाना चाहिये-किस प्रकार से उन्हें चरसाया-सो इसके लिये सूत्रकार कहते हैंकि-जैसे कोई भृत्यदारक हो और वह तरुण यावत् शिल्पोपगत हो, तो जैले वह एक बडे भारी उद्ग से मरे हुए वारक-(छोटेवडे से) को, या उदक से भरे हुए कांस्य आदि के वर्तन को या उदक से भरे हुए कलश को, या उदक से भरे हए कुंभ को (गहाय) ले करके (रायगण वा जाच उजाण वा अतुरियं जाय सन्यो समंता श्रावरिसेना) रानाङ्गण त्यांथा SRA STiतमा साधा. (एडित्ता खिप्पामेव उपसमंति, उव. समिता दोश्चापि उब्धियसमग्याएणं समोहगति)ीन तेसो ४४म orat ઉપશાંત થઈ ગયા. ત્યાર પછી બીજી વખત પણ તેમણે વ્યક્તિ સમઘાત કર્યો, (समोहणित्ता अन्मवदकए विउति) वैष्ठिय समुधातीने पछी तेभर मनाथी पारी १२से छ सेवा मेघोनी विनु ४२१. (विउविता-से जहा नामए भगदारए सिया, तरूणे जाव सिप्पोचगए एग म दगवारगवा दगधालग वा दगलसगं वा दगकुंभगं वा) विशन पछी तेभारे मयित्त पायी सदा મેઘોને વરસાવ્યા આ પ્રમાણેને સંબધ અહી લગાડજોઈએ. કેવી રીતે પાણી વરસાવવમાં આવ્યું તેના માટે સૂત્રકાર કહે છે કે જેમ કેઈબ્રત્યદારક હોય અને તે તરુણ યાવતું શિલ્પોપગત હોય અને તે જેમ એક બહુ મોટા ભારે અને પાણીથી ભારેલા વારક (નાના ઘડા) ને કે પાણીથી ભરેલા કાંસ્ય વગેરેના વાસણને કે पायी मारे मन (गहाय) साधने, (रायंगणवा जाव उज्जाणं वा अतुरिय जाव सव्यभो समंता श्रावरिसेना) २२०८ सपना Pugiने , यावत् धान
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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