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________________ ६८८ • राजप्रश्नीयसूत्रे आभियोगिकान् देवान शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-क्षिपमेव भो देवानु प्रियाः) मूर्याभे विमाने शृङ्गाट के पुत्रिकेषु चतुप्केषु चत्वरेपु चतुर्मुखेषु महापथेषु माकारेषु अट्टाल केपु चरिकासु द्वारेषु गोपुरेषु तोरणेपु आरामेषु उद्यानेषु तिसोवाणे य सालभजियाओ य वालख्वए य तहेव) इस मुत्रपाठ द्वारा प्रकट की गई हैं। इसके बाद वह (जेणेव यलिपीट तेणेच उवागच्छइ, बलिविसजणं करेइ) जहाँ बलिपीठ था वहां पर आया, वहां आकर के उसने बलि का विसर्जन किया इसके बाद उस मूर्याभदेव ने आभियोगिए देवे सदावेइ) आभियोगिक देवों को बुलाया (पदायित्ता एवं वयासी, चुलाकर उनसे ऐसा कहा (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! मरियाभे विमाणे सिंघाड एसु, चउक्सु, चच्चरेसु, चउम्मुहेसु, महापहेस, पागारेसु, अट्टाल एसु, चरियासु, दारेसु, गोपुरेसु तोरणेसु, आरामेसु, वणेसु, वणराईसु; वणसंडेसु अञ्चणियं करेइ) हे देवानुप्रिये ! आपलोग बहुत ही शीघ्र सूर्याभ विमान में श्रृङ्गा टकों में-सिंघाड़े की आकृति जैसे त्रिकोणवाले स्थान विशेपों में, ताको में-मार्गत्तयमिलनस्थानों में. चतुष्को में-चार मार्ग आकर जहां मिले हों ऐसे स्थानों में, चत्वरों में-अनेकमार्ग जहां आकर मिले हो ऐसे स्थानों में, चतुर्मुखों में-जहां से चारों भी दिशाओं में मार्ग निकलते हैं ऐसे स्थानों में, महापथों में-राजमार्गा में, अबालिकाओं में-प्राकारों के उपरिवर्ती स्थानविशेपो में, चारिकाओंमें-आठ हाथ प्रमाणवाले प्रकारान्तरावर्ती भागों में, द्वारों में-प्रासादादि को के दरवाजो में, गोपुरों में-पुर के दरवाजों में, पामा भावी छ त्या२५छी त (जेणेच वलिपी तेणेव उवागच्छइ, यलिविसजण करेइ) બલિપીની પાસે આવ્યું. ત્યાં આવીને તેણે બલિવિસર્જન કર્યું ત્યારપછી તે સૂર્યદેવે (आभियोगिए देवे सदावेइ) मालियोनि हेवाने माराव्या. (सदावित्ता एवं वयासी) महावीर तेभने प्रमाणु :-(खिष्पामेव भो देवाणुपिया ! सूरियाभे विमाणे सिंघाडएसु तिएसु, चउक्केसु च चरेसु, चउम्मुहेसु, महापहेसु, पागरेम, अट्टाल‘एसु, चरियासु, दारेसु,गोपुरेसु, तोरणेस, पारामेसु. वणेसु, वणरोईसु, काणणेसु वणसंडेसु, अच्चणियं करेइ) पानुप्रिया! तमे या शी सूयविमानभां, ગાટમાં શિંગડાની આકૃતિ જેવા ત્રિકેણવાળા સ્થાન વિશેષોમાં, ત્રિકેણમાં–ત્રણ રસ્તાઓ જ્યાં મળે તે સ્થાને માં, ચતુષ્કમાં–ચાર રસ્તાઓ જયાં મળે તે સ્થાનમાં, ચરોમાં–ઘણું રસ્તાઓ જે સ્થાને એકત્ર થાય તે સ્થાનમાં, ચતુર્મમાં–જયાંથી ચારેચાર દિશાઓમાં રસ્તાઓ જતા હોય તે સ્થાનોમાં–રાજમાર્ગોમાં, પ્રાકારમાં અટ્ટાલિકાઓમાં-પ્રાકારોના ઉપરિવતી સ્થાન વિશેષોમાં, ચારિકાઓમાં-આઠ હાથ પ્રમાણવાળા પ્રાકારાન્તરાલવત ભાગમાં કારમાં–પ્રાસાદા કેના દ્વારમાં, ગેપુરામાં પુરના દરવાજાઓમાં
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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