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________________ ततः रनीयाज सूत्रे सर्वनः माचीना याळाजनमूर्तयो डाक्टर फुहररमहोदयेन संवप्रथरम मथुरायां सम्प्राप्ताः ता अपि केवलम् अष्टादशशतवकालिकय एव सन्ति न प्राकालिक्यः का अपि जिनप्रतिमा अद्यत्वे कुत्रापि उपलब्धाः समुपलभ्यन्ते वा । यत्तु पालिताना-आबू-तारङ्गा-शत्रुञ्जय-गिरनार (तक) प्रभृति पर्वतेषु अद्यत्वे उपलभ्यमाना अर्वाचीना जैनमूर्त्तीः अतिप्राचीनाः प्रतिपादयन्ति तदपि तुच्छम् यतो हि महावीरस्य निर्वाणानन्तर में कियतीषु शताब्दीषु व्यती वासु सतीष्वेव तत्प्रतिमानां स्थापना जाता ॥ २० ॥ किश्च कामदेवश्रावकेण पोषघवतसेवनं कृतम्, तत्प्रशंसाम् इन्द्रः मुखाच्छुखा तं तदतात्पादयितु देवः समुपस्थितः बहुविघ्न वाधाव कृतवान् तथापि तद्वतादमच्युतं तं श्रावक भगवान् महावीरी भूरिशः प्राशं से. माचीन जो जिनमूर्तियां डाक्टर फुहररमहोदयने सब से प्रथमपास को थी, वे भी केवल १८०० मौ वर्ष की ही पुरानी हैं । इसके पहिले की जिनमतिमाएं इस समय तक कहीं भी न उपलब्ध हुई हैं और न मिल रही हैं।. -- २०---जो लोग ऐसा कहते हैं कि पालीताना, आयु, तारा, शत्रुजय - गिरनार ( रैवतक) आदि पर्वतों पर जो इस समय मूर्तियां हैंवे अतिमाचान हैं सो ऐमा उनका कहना ठीक नहीं हैं क्योंकि महावीर को जब निर्वाण की प्राप्ति हो चुकी, तब कितनीक शताब्दि के चले जाने परं की उन मूर्तियों की स्थापना हुई है। मथुरा में जो मूर्तियां भूगर्भ से प्राप्त हुई हैं. वे भी डा. फूटर महोदय के कथनानुसार १८०० सौ वर्ष की ही प्राचीन हैंइससे अधिक प्राचीन नहीं हैं । ? . २१- कामदेव श्रावकने जब पौघवन का सेवन किया तब इन्द्रने देवताओं के समक्ष उसकी बडी प्रशंसा की. सो इन्द्र के मुग्व से उसकी " SAR ।. डूड२२ भहाये सौ पहेली निनमूर्तियो भेजवी हती. ते पशु ३५त १८०० से વર્ષ જૂની છે. હજી સુધી. કાઇપણ સ્થાને એના પહેલાંની જિનમૃતિએ મળી નથી. (२०) ? बोडी खेवी मान्यता धरावे ई पालीताणा आजू तारंजा, शत्रु ગિરનાર (રૈવતક) વગેરે પર્વત પર જે અત્યારે પ્રતિમાઓ છે તે અતિપ્રાચીન પણ એ માન્યતા ડીક નથી. કેમકે મહાવીરની નિર્વાણ પ્રાિ પ્રાપ્તિ પછી માદ આ પ્રતિમાઓની સ્થાપના કરવામાં આવી છે. મથુરામાં જે ભૂગર્ભ માં પ્રતિમાએ મામ વધુ છે, તે પણ,ડા ફૂહરર મહાદયના મત મુજબ ૧૮૦૦ સેા વર્ષ કરતાં પ્રાચીન નથી. (२१) वर्णी, अभहैव श्रावडे न्यारे घोषधप्रतनु सेवन उयु ं त्यारे हेन्द्रे देवताઆના સામે તેના ખૂબ વખાણ કર્યાં. ઇંદ્રમુખથી તેના વખાણું ઘણી શતાબ્દિએ ન થયેલા સાંભળીને 11
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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