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________________ सुबोधिनी टोका. सू. ९३ सूर्याभदेवस्य कार्यक्रमवण नम् छाया-नमोऽस्तु खलु अहँ यो वत्संप्रातभ्यः, बदन्त नमस्यति, वान्द हवा, नमस्थित्वा यत्र देवच्छन्दका यव सिद्धायतनस्य बहुमध्यदेशभागस्त त्रैव उपांगच्छति, लोमहस्तक परामृति, सिद्धायतनस्य बहुमध्यदेशभाग लोमहस्तेन प्रमाण यति, दिव्यया दकधारया अभ्युक्षयति, सरसेन गोशी पचन्दनेन १ञ्चालितलं मण्डलकम् आलिखांत. कच ग्रहहीत-यावत्-मुक्त पुष्पपुञ्जोपचारकलित करोति, कृत्वा धूप ददाति । यत्रैव खिद्धायतनम्य जैसे कोई सरोवर को स्तुति करते हुए आदरार्थ उसमें सागर का आरोग करते हैं, जैसे "यह सरीवर सागर है। इसी प्रकार माता और पिताको स्तुति करते हुए उनमें देवत्वका आरापण करते हैं जैसे "य मेरे माता पिता देव हैं। जैसे-"यह मेरी माता भदा सार्थवाही देवगुरु समान " इस शास्त्रप्रमाण से "जिन देव से अधिक कोई आदरणीय नहीं है, ऐसा मनमें रखकर पर्याभदेव कामदेवप्रतिमामें जिनत्य का आरोपण कर "नमात्थुणं" इत्यादि मूत्र से स्तुति करता है:-'नमोत्थुणं आहताण जाः संपत्ताण' इत्यादि। - मत्रार्थ-(नमोत्थुण अरहताण जाव संपत्तण, यावत सिद्धिर्गात नामक स्थान को प्राप्त हुए अरिहन्त भगवन्नों को नमस्कार को इस प्रकार कह कर उस मुर्याभदेवने (व'दइ नम मड) जिनपतिमाओं की वन्दना की, नमस्कार किया (वंदित्ता नम सित्ता जेणेत्र सिद्धाययणस्स बहुमज्झ देखाए लोमहत्थेग पमज्जइ) वन्दना नमस्कार कर फिर उम्ने जहां सिद्धागतन का वहुमभ्य देशभाग था वहां जाकर रक्खे हुए लोमहस्तकोंको उठाया और उसे लेकर उसने उस बहुमध्य देशभोग की प्रमार्जना की (दिक ए दगधाराए अन्मुक्खेड़-सरसेग गोसीसचदणेण पंचगुलिनलं भडलगं आलिहाइ) दिव्य जल की धारा से उसे सींचा. मरसगाशीर्षचन्दन से वहां पंचलितलाले જેવી રીતે કેઈ સરવરની સ્તુતિ કરતાં સરોવરને આદરાઈ તેમાં સાગરનું આપણુ કરે છે. જેમ કે આ સરોવર સાગર છે, તેવી જ રીતે માતા અને પિતાની તુતિ કરતાં તેનામાં દેવાપણાનું આરોપણ કરે છે જેમકે “આ મારા મ તા પિતા દેવ છે જેમકે- અમારી માતા ભદ્રા સાથવાહી દેવગુરૂ સમાન છે” એ શાસ્ત્ર પ્રમાણથી “જનદેવથ અધિક કેઈ આદરણીય નથી.” એવું મનમાં સમજીને સૂર્યદેવ કામદેવની प्रतिभामा नवनु मारोप शन 'नमोत्युग' या सूत्रयी स्तुति रे छ. __ 'नमोत्थुणं अरहताण जाव संपत्ताणं' इत्यादि। सूत्रार्थ-(नमोत्थुण अरहताणं जाव संपनाणं) यावत् सिद्धिति नाम: સ્થાન પામેલા અરિહંત ભગવંતોને નમસ્કાર છે. આ પ્રમાણે કહીને તે સૂર્યાભદેવે (बदई नमसइ) नितिमामाने वन्न तमा नभ२४४२ श्या. (दित्ता नमंमित्ता जेणेव सिद्धाययणस्स बहुमज्झदेमभाए लोमहत्थेण पमजइ) पहना तेमका નમસ્કાર કરીને પછી તેણે જયાં સિદ્ધાયતનને બહુ મધ્યદેશ ભાગ હતો ત્યાં જઈને ત્યાં મૂકેલા મહસ્તકને લીધો અને ત્યારપછી તે બહુમધ્યદેશ ભાગની પ્રમાર્જના કરી , (दिवाए दगधाराए अभुक्खेद सरसेणं गोसीसच दणेणं पंचं गुलितलमड लग आलिहइ) हिव्य Aधाराथी ते स्थान :सियन यु, तथा सरसगी.
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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