SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 642
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजप्रश्रीयसूत्रे ६२८ यत्रैव जिनमनिमास्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य जिनप्रतिमानामालोके मणाम करोति, कृत्वा लोहस्तकं गृह्णाति गृहीत्वा जिनप्रतिमानां लोमहस्त केन प्रमार्जयति, ममाज्य जिनप्रतिनाः सुरभिणा गन्धोदकेन स्नपयति, स्नपयित्वा सुरभिगन्धकपायिण वस्त्रे गात्राणि रुक्षयति, क्षयित्वा मरसेन गोशी चन्दनेन गात्राणि अनुलिम्पति अनुलिप्य जिनमतिमानाए अनुतानि देवदुष्ययुगलानि निवासयति, निवास्य पुष्पारोहण माल्यारोहणं गन्धारोहणं तेणेव उवागच्छ इस तरह के सूर्याभदेव, चार हजार सामानिक देवों से यावत् अन्य और बहुत से सूर्याभविमानवासी देवों और देवियों से घिरा हुआ होकर अपनी समस्तऋद्धि के अनुसार यावत् चाजों की तुझुल ध्वनि पूर्वक जहां वह सिद्धायतन था जहां देवच्छक था और उसमें भी जहां सोपानपतिमाएँ थीं वहां पर गया (उवागच्छिता जिगपडिमा आलोप पणामं करे, करिता लोमहत्थग गिors, गिण्हित्ता जिणपडिमाण लोमहत्थरण' मज्जइ) वहाँ जाकर उसने जिनप्रतिमाओं को देखते ही प्रणाम किया प्रणाम करके फिर उसने लोममयी प्रमार्जनी हाथ में ली और उससे जिनपतिमाओं को प्रमार्जित किया. ( पमज्जित्ता निणपडिमा सुरभिणा गंधोदपूर्ण हाएइ, व्हाइत्ता सुरभिकासाइएण वत्थे गाया लहेइ) प्रमार्जित करके फिर उससे उन जिनप्रतिमाओं को सुरभिगन्धोदक से स्नान कराया. स्नान कराकर फिर उसने सुरभि, एवं कायद्रव्य से परिकर्मित ऐसे अङ्गमोन्न-वस्त्र से उन जिनप्रतिमाओं के शरीर को पोंछा (लुहिता सरसेणं गोसीसचंदगेणं माया अणुलिप, अणुकिंपिता जिणपरिमाणं अहयाई देवदुस १ આ પ્રમાણે તે સૃર્યાભદેવ ચાર હજાર સામાનિક દેવેથી યાવત્ ખીજા—પણ ઘણાં સૂક્ષ્મભવમાનવાસી દેવા અને દેવીએથી પરિવેષ્ટિત થઈને પેાતાની સમસ્ત ઋદ્ધિ મુજબ ચાવતા વાજાની તુચુલધ્વનિપૂર્વક જ્યાં તે સિદ્ધાયતન હતુ, જયાં દેવચ્છ ંદ અને तेभां पशु नयां त्रिसोपानप्रतिमाओं हुती. त्यां गये. (उद्यागच्छिता जिणपडिमाण आलो पणामं करेइ, करिता लोमहत्ययं गिड, गिहिंत्ता जिणपडि मागं लोमहस्थपुर्ण पमज्जइ) त्यांने तेथे बिन प्रतिभानितां प्रशुभ ર્યા. પ્રણામ કરીને પછી તેણે લેામમથી પ્રમાની (સાવરણી) હાથમાં લીધી અને तेना पडे त्रिनप्रतिभागोनु: आयु. ( मज्जिता जिणपडिमाओ सुरभिणा गंधोद व्हाड, हाणिता सुरभिकासाइएण वत्थेणं गाया लूहेड़) प्रभाति કરીને પછી તેણે તે જિનપ્રતિમા એનું સુરલિંગ ધાદકથી અભિસિ ંચન કર્યું. અભિસિચન કર'ને તેણે સુરભિ, અને કષાય દ્રવ્યથી પરિકર્મિત એવા અગપ્રેાંછન વસથી विनप्रतिभागोने घूंछी ( हित्ता सरसेणं गोसोसच दणेणं गायाई अणु
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy