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________________ सुबोधिनी टीका' सू. ८७ सूर्याभविभानस्य देवकृतसज्जीकरणादिवर्णनम् ५९९ . देवात्रीण्यपि, अप्येकके देवा गर्जन्ति. अप्येक के देवा विद्युयन्त अप्येक के देवा वर्ष वर्षन्ति; अप्येक देवा स्त्रीण्यपि कुर्वन्ति, अप्येकके देवा ज्वान्त, अप्येकके देवाः तपन्ति, अप्येकके देवाः प्रत्तपन्ति अप्येकके देवा स्त्रीण्यपि, अध्येकके देवाः हन्ति , प्रत्येकके देवाः थुत्कुर्वन्ति, अप्येकके करे ति) तथा कितनेक देवोंने सिंहनाद किया (अस्पेगझ्या देवा ददरयं करेंति) कितनेक देवोंने दरक किया अर्थात् चन्दन के लेप से लिप्त करके चपेटा की आकृति की (अप्पेगईया देवा भूमिचवेड दमयंति) तथा कितनेक देवोंने भूमि के ऊपर चपेटा दिया अर्थात भूमि के ऊपर हाथों से आघात किया (अप्पेगड्या देवा तिन्नि वि) तथा कितनेक देवोंने सिंहनाद भी किया, दर्दरक भी किया और भूमि के ऊपर चपेटा भी दिया (अप्पेगइया देवा गजति) तथा कितनेक देवोंने गजेन किया (अप्पेगईया देवा विजयायंति) किलनेक देवों ने बिजली के जैसे चमकने का काम किया (अप्पेगइया देवा वासं वासंति) कितनेक देवोंने वृष्टि की (अप्पेमइया देवा तिन्नि वि काति) तथा कितनेक देव गरजे भी चमके भी और बरसे भी. इस तरह तीनों कार्य उन्होंने किये (अप्पेगइया देवा जलंति, अप्पेगइया देवा तवंति, अप्पेगइया देवा पतत्ति) तथा कितनेक देव ज्वलित हुए, कितनेक देव तप्त हुए और कितनेक देव और भी अधिक तप्त हुए. (अप्पेगइया देवा-तिन्नि वि) तथा कितनेक देव ज्वलितं भी हुए, तप्त भी हुए और प्रतप्त भी हुए-इस प्रकार उन्होंने इन तीनो कार्यों को भी किया (अस्पेगइया देवा हकारे ति. ददरयं करेंति) ६६ हेवाय ६६२४ मेट 3. यहनना बेपथी लत शन थापा नी भाति ४श. (अप्पेगइयो देवा भूमिचवेड दलयांति) तेम ४६४ हेवान् भूमि ५२ त& Hi२ प्रा२ यस. (अप्पेगइया देवा तिदिन चि) तथा ४८८॥ वो सिंहना पy यो मन ६६२४ मा भुभि५२ तल प्रा२ पशु या. (अप्पेगइया देषा गज्जति) तमन ८८४ हेवामे न . (अप्पेगइया देवा विज्जुयायंति) ४४ हेवा qिarvilनी म प्रथित थवानु भ. ४यु (अप्पेगल्या देवा वास वासंति) 28 वय वृष्टि ४२१. (अरपेगइया देवा तिन्नि वि करें ति) तेमा કેટલાક દેએ ગર્જના પણ કરી. પ્રકાશિત પણ થયા અને વૃષ્ટિ પણ કરી. આ जे यो तेमा ध्या. (अप्पेगइया देवा जलंति, अल्पेगइया देवा तवति, आपेगइया देवा पतवें ति) तेभ. 32 वो लवलित थया, ८४ हेवो तस थया मनसा व वधारे तो थया. (अप्पेगइया देवा तिन्नि वि) तेभ रक्षा દેવો જવલિત પણ થયા, તણ પણ થયા અને પ્રાપ્ત પણ થયા. આ પ્રમાણે તેમ
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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