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________________ HTTA • : ... सुबोधिनी टीका सू. ८५ सूर्याभस्य ईन्द्राभिषेकवर्णनम् ५८१ सर्वतुवराणि - सर्व पुष्पाणि - सर्वमाल्यानि सर्वोपधिसिद्धार्थकांश्च गृह्णन्ति, गृहीत्वा यत्रैव नन्दनवन तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य सर्वतुवराणि यावव सौषधि सिद्धार्थकांश्च सरसगोशीर्ष चन्दन" च गृह्णन्ति, गृहीत्वा यत्रच सौमनसवन तनव उपागच्छति, सर्वर्तुवराणि यावत् सर्वोषधिसिद्धार्थकांच सरसगोशीर्षचन्दन च दिव्य'च सुमनोदामदर्द रमलयसुगन्धिकांश्च गन्धान गृह्णन्ति, गृहीत्वा यत्रत्र पण्ड कवनां तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य सर्वत्राणि मंदरे पन्चए जेणेव भदसालवणे तेणेव उवागच्छति) फिर वे वहां से नहीं मंदर पर्वत था और जहाँ भद्रशालवन था वहां पर आयें । (सव्वतयरें सव्वपुप्फे, सव्यमल्ल, सम्बोसहिसिद्धत्थए यं गेहति, गेण्डित्ता जेणेव गंदणवणे तेणेव उवागच्छति) वहां से सर्वऋतुओं के श्रष्ठ पुष्पों को सर्व मालाओं को सौ पधियों को एवं सिद्धार्थकों को लिया, लेकर फिर वें जहां नन्द नवन था वहां पर आये (उवागच्छित्ता सव्वतयरे जावः संवो. साहिसिद्धथए सरसगोसीसचदेणं च गिहाति) वहां आकर के उन्होंने वहां से सर्वऋतुओं के श्रेष्ठ पुष्पों को यावत सवौषिधियों को एवं सिद्धार्थकों को(सरसुको)एवं सरसगोशीर्षचन्दन को लिया (भिहिता जेणेव सोमसवणे तेणेव उवागच्छति) वहाँ से यह सब लेकर फिर वे जहां सौमनसवन था वहां पर आये (सव्वत यरे जाव सम्वोसहिसिद्धथए य सरसगोसीमचंदणं च दिव्वं च सुवष्णदामं । ददरमलय मुगंधिए य गघे गिहाति) वहां आकर उन्होंने वहां से समस्त ऋतुओं के फूलों को यावत् सवासाधा. (जेणेव मंदरे पव्वए जेणेव भदसालवणे तेणेव उवागच्छति) त्यापछी तल्या त्यांची न्यामत तो अनेल्या शासनसत्यसन्य तूयरे सव्व पुप्फे, सचमल्ले, सम्वोसहिसिद्धथए य ह ति, गेण्हिता जेणे गंदवणे तेणेव, उवागच्छति) त्यांथी स मान श्रेष्ठ माने, सर्व માલાઓને, સવપંધિઓને અને સિદ્ધાર્થ કેને લીધાં, આ બધું લઈને તેઓ ત્યાંથી या नवन हेतु त्या या (उवागच्छित्ता सव्वतूयरे जाव सम्वोसहि सिद्धत्थए. सरसंगीसीसंच दणं च गिहाति) त्या तेमणे त्याची सर्व * तुम्माना શ્રેષ્ઠ અને ચાવંત સવોષધિઓને, સિદ્ધાર્થને અને સરસ ગશીર્ષચન્દન ને લીધાં. (गिहित्ता जेणेव सोमणसवणे तेणेव उवागच्छति) त्याथी धी; वस्तु नि तो क्या सौमनसेवन तु त्या आया. (सव्वायरे जाव सव्वीसहिसिद्धत्थए य सरसंगोसीसचंदणं च दिव्वं च मुचणदाम दद्दरमलयसुगंधिए य गंधे गिव्हंति) त्या न तभी त्यांची सर्व माना पाने यावत् सौषधिमा भने सिद्धा
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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