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________________ ५७३ सुबोधिनी टोका' सु. ८९ सूर्याभस्य इन्द्राभिषेकवर्णनम् देवानुप्रियाः ! मयोभस्य देवस्य महार्थमहाध महार्ह विपुलम् इन्द्राभिषेकम् उपस्थापयत । ततः खलु ते आभियोगिका देवाः सामानिकपरिपदुपपन्नकैदेवरेवमुक्ताः सन्तः हष्ट-यावद्-हृदया करतलपरिगृहीतं शिर आवात्तं मस्त के अञ्जलिं कृत्वा 'एवं देवस्तथा'-इति आज्ञाया विनयेन वचनं प्रतिशण्वन्ति, 'तएणं सरियाभस्स देवस्स' इत्यादि । मूत्रार्थ-(तएण) इसके बाद (यूरियाभस्स देवास सामाणियपरिसोव बन्नगा देवा भाभिओगिए देके सहावेइ) सूर्या भदेव के सामानिकपरिषदुपपन्नक देवोंने आभियोगिकदेवों को बुलाया (सदारिता एवं बयासी) बुलाकर उनसे ऐसा कहा-(विप्पामेव भो देवाणुपिया! मरियासस्प देवस्य महत्थं महग्धं महरिहं इदाभिसेय उवट्ठवेह) हे देवानुप्रियो ! तुमलोग सूर्याभदेव का महार्थमहाप्रयोजनवाला, महाघ अधिकमूल्यवाला, महाह-महाजनों के लायक, ऐसा विपुल :इन्द्राभिषेक-इन्द्रपद में अभिषेक के उपकरणों को उपस्थित करो (तएणं ते आभियोगिया देवा सामाणियपरिमोववन्नेह देवहिं एवं वुत्ता समाणा हतु जाव हियया करयलपरिग्गहियं सरसावत्त मत्थए अंजलि कह' 'एवं देवो तहत्ति' आणाए विण एण वयणपडिसुण ति) तब वे अभियोगिक देव जब सामानिकपरिषदुपपन्नकदेवोंने इस प्रकार उनसे कहा तव हृष्टतुष्ट यावत् हृदय वाले हुए और उमी समय उन्होंने विनय से दोनों हाथ जोडकर 'आप जैसा कहते हैं हमे प्रमाण है' इस प्रकार से उनकी आज्ञा के 'तरुण सुरियाभस्स देवस्स' इत्यादि । सूत्राथ-(तएण) त्या२पछी (सुरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोव वन्नगो देवा आभिओगिए देवे सदावेह) सूर्या नवना सामान परिषदुपपन्न हेवामा मलियागि वान मालाया. (सदावित्ता एवं क्यासी) मालावीन न्ा प्रमाणे ४ (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! मृरियोभम्स देवस्स महत्थ महग्धं महरिहं विउल ईदाभिसेयं उबट्टवेह) देवानुप्रियो ! तभे सो सूर्याभवना भडथ:બહુજ કિંમતી, મહાઈ–ભદ્ર પુરુષો માટે યોગ્ય, એ વિપુલ ઈન્દ્રાભિવક-ઈન્દ્રપદ भाट मनिष ४२वाना सर्व ५४२४ो-उपस्थित ४२१. (तए ण ते आभियोगिया देवा सामाणियपरिसोवयन्नेहिं देवेहि एवं वुत्ता समाणा हतुट्ठ जाव हियया करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कडे "एवं देवो तहति" आणाए विणएणं वयण पडिसुणाति) त्यारे ते मालियो वामे सामानि પરિષદપપન્ન દેવની એવી આશા સાંભળી ત્યારે તેઓ બહટ તુ યાવત હદયવાળા થયા અને તત્કાલ તેઓ વિનંતી કરતાં બંને હાથ જોડીને આપની જે આજ્ઞા
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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