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________________ ५६० राजप्रश्नीयसूत्रं किं मे पश्चात्श्रेयः ?कि से पूर्वमपि पश्चादाप हिताय मुखाय क्षेमाय नियसाय आनुगामिकतायै भविष्यति ।। मृ० ८२ ॥ 'तेणं कालेणं' इत्यादि--- टीका-तस्मिन् काले चतुर्धारकस्यान्तिमभागे तम्मिन् समये अवसरे सूर्याभो देवः सूर्याभे विमाने उपपातसभायां देवदप्यान्तरितायां देवशय्यायां प्रथमतोऽजुलासंख्येय भागमात्रया अवगाहन या अधुनोपपन्नमात्रक एव तत्कालोपन्नमात्र एव सन पचविधया पञ्चप्रकार या पर्याप्त्या पर्याप्तिभाव पर्यामनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ (किं मे पुचकरणिज १, किं मे पच्छाकरणिजं किं मे पुद्धि सेयं ? किं मे पच्छासेयं ? किं में पुचि पि पच्छा वि हियाए. सुहाए, खेमाए, निस्सेयसाए आणुगाामियत्ताए, भविस्सद ?) मुझे पूर्व करणीय क्या है ? पश्चात् करणीय क्या है मुझे पहिले क्या करना उचित है ? पीछे क्या करना उचित है? पहिले भी और पीछे भी क्या करना उचित है जो मेरे हित के लिये हो सुख के लिये हो, क्षेम के लिये हो, कल्याण के लिये और परम्परा सुखसाधन के लिये हो ?। टीकार्थ--उस काल में-चतुर्थ प्रारक के अन्तिमभागमें और उस समय में जव कि मूर्याभदेव सूर्याभविमान में, देवप्यान्तरित देवशय्या में सब से प्रथम अल के असंख्यातवें भागमात्र अवगाहना से उत्पन्न हो चुका था और इस तरह होकर वह जब पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्तिभाव को पर्याप्त अवस्था को-प्राप्त हो चुका था. तब उसके मन में ऐसा संकल्प उत्पन्न हुआ। पांच प्रकार की पर्याप्तियां इस प्रकार से पुवकरणिज्ज ! किं मे पच्छा करणिज्ज १ कि मे पुचि सेयं १, किं मे पच्छा सेय, कि मे पुचि पि पच्छा वि हियाए, सुहाए, खमाए, निस्सेय साए आणुगामियत्ताए भविस्सइ१) भा। भाटे ५१°४२एणीय छ ? पश्चात् ४२णीय શું છે? મારે પહેલાં શું કરવું જોઈએ? અને ત્યારપછી શું કરવું જોઈએ. કે જે મારા હિત માટે હેય. સુખ માટે હય, ક્ષેમ માટે હોય, કલ્યાણ માટે હોય અને પરંપરા સુખસાધન માટે હોય ? ! ટીકાથે-તે કાળે ચેથા આરકના અંતિમ ભાગમાં અને તે સમયમાં-કે જયારે સૂર્યાભદેવ સૂર્યા વિમાનમાં, ઉપપાતસભામાં, દેવદૂધ્યાન્તરિત દેવશય્યામાં સૌ પ્રથમ અંગુલના અસંખ્યામાં ભાગ માત્ર અવગાહના માત્રથી જન્મ પામી ચૂક્યા હતા. અને આમ થઈને તે જયારે પાંચ પ્રકારની પર્યાપ્તિઓથી પર્યાપ્તિભાવને પર્યાપ્ત અવસ્થાને–પ્રાપ્ત થઈ ચૂક્યો હતો ત્યારે તેના મનમાં આ જાતને સંકલ્પઉત્પન્ન થયે
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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