SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 516
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५०२ सू त्राणि यावत् सपत्र हस्तकाः नेपाँ खलु तृपानां प्रत्येक प्रत्येक चतुर्दिशि मणिपीठिका: प्रज्ञताः । ताः खलु मणिपीठिका: अव्ययोजनानि ग्रामवि " 1 कम्भेण चत्वारि योजनानि बाहल्येन सर्वरत्नमय्य: अच्छा यावत् मनिरूपाः । तासां खलु मणिपीठिकानाम् उपरि चतस्रो जिनमतिमाः जिनोत्सेधप्रमाणमात्राः सम्पर्यङ्कनिवण्णाः स्तूपाभिमुख्यः संनिक्षिप्ताः तिष्ठन्ति तद्यथा रूपभा कई साना चन्द्रानना वारिणा ॥ ० ७३ ॥ मंगलक, ध्वजाएं और छातिच्छत्र यावत् सहस्ररूप कहे गये हैं । (सिं गं थूभाणं पत्तयं पत्तेयं चउद्दिर्मि मणिपेठियाओ पणत्तात्रो) उन स्तृमों में एक एक सणिपीठिका चारों दिशाओं में कही गई है। (ताओण मणिपेढियायो जोयणाई आगामविक्खभेण चत्तारि जोयणा' बाहल्लेण सच्चमणिमईओ अच्छाओ जाव पडिवाओं) से सत्र मणिपीटिकाएं आयाम विष्कंभ की अपेक्षा आठर योजन की हैं तथा इनकी स्थूलता - मोटाई, चार योजन का हैं. ये सच सर्वथा रत्नमय हैं, अच्छ हे यावत् प्रतिरूप हैं (नासि ण मणीपेढियाण' उवरिं चत्तारि जिणपडिमाओं जिणुस्सेहपमाणमेत्ताओ संपलि निसन्नाओ भाभमुहीओ सन्निक्खिनाओ चिति तं जहा-उसभा बद्धमाणा चंदाणणा वारिसेणा ) इन मणिपीठिकाओं के ऊपर चार जिन पतिजाए है, जिनका शरोरोत्सेध - ऊंचाई जितना कहा गया है, इन प्रतिमाओं का उतना ही उत्सेध है. ये सब प्रतिमाएं पर्यङ्कासन से बैठी हुई है जात्र सहस्स० ) ये स्तूयोनी उपर आठ आठ मंगनी, ध्वन्यो भने छत्रातिच्छत्रो यावत् सहस्त्रपत्र भणो ईडेवाय छ. (तेसिं णं थूभाणं पत्ते चउहिसि मणिपेठयाओ. पण्णत्ताओ) ये स्तूपोभांथी हरे हरेः स्तूपां गो: : भज़िपीठिन चार दिशामाभां उÈवाय छे, (ताओणं मणिपेढियाओ अजोयणाई आयामविखंभेणं चत्तारि जोयणाई पाहल्लेणं सव्वमणिमईओ अच्छाओ जाव पडित्राओ) આ બધી મણિપીઠિકાએ આયામ અને વિષ્ણુ બની અપેક્ષાએ આઠ ચેાજન જેટલી છે. તથા એમની સ્થૂલતા–મેાટાઇ–ચાર ચેાજન જેટલી છે. આ ખધી સર્વથા રત્નમય છે, छछे, यावत् प्रति३ छ (तासिणं मणिपेढ़िया णं उचरिं चत्तारि जिण पडमाभो जिणु सेहपमणमेत्ताओं संपलियंकनिसन्नाओ भाभीओ सन्नि दिखत्ताओ चिति तं जहा - उसभावद्धमाणा चंद्राणणा वारिसेणा ) या भशिचीકાઓની ઉપર ચાર જિનપ્રતિમાઓ છે. જિના શરીરની ઊંચાઈ જેટલી કહેવામાં આવી છે તેટલી જ ઊંચાઇ તે પ્રતિમાઓની પણુ છે. આ બધી પ્રતિમાએ પકાસનથી
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy