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________________ सुबोधिनी टीका सू. ६१ सूर्याभविमानव नम् प्रज्ञप्तानि । तेषां खलु द्वाराणाम् उत्तमाकाराः षोडशविधैः रत्नैः उपशोभिताः, रत्नैश्च यावरिष्टैः, तेषां खलु द्वाराणामुपरि अष्टाष्टमंगलकानि सध्वजानि यावत् छत्रा तिच्छत्राणि। एवमेव सपूर्वापरेण सूर्या विमाने चत्वारि द्वारसहस्राणि भवन्ति इत्याख्यातम्। मर्याभस्य विमानस्थ्य चतुर्दिशि पच पच योजनशतानि अबाध या चत्वारो बनखण्डा: प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अशोकवनं सप्तपर्णवनम् चम्पकवनम्, है (सीहासण चण्णओ सपरिवारो अब से सेसु भोभेल पतेय पत्तेय' भदालणा पण्णत्ता) सपरिवार सिंहासन का यहां वर्णन करना चाहिये बाकी के भौमों में प्रत्येक भौम में भद्रासन कहे गये हैं। (तेसि ण दाराण उपिमागारा सोललविहेहि रयणेहि उनसोभियान जहा-रयणेहि जाब रिटेहि) इन द्वारों के उत्तमाकार-द्वार के ऊपर के भाग १६ प्रकार के रत्नों से उपशोभित हैं । वे रत्न कतनादि सामान्य रत्नों से लेकर रिष्ट तक जानना चाहिये. (तेसि ण दाराग उप्पिं अट मंगलगा, सज्झया जाब छन्ताइच्छत्ता) उन हारों के ऊपर आठ २ मांगलिक ध्वजाओं सहित यावत् छत्रातिच्छत्र तक है। ( एवमेव सपुब्बारेण मुरियामे निमाणे चत्तारि दारसहरमा भवंनि तिमकवाय) इस प्रकार से मर्याभ विमान में चार हजार द्वार हैं एसा तीर्थंकर एवं गणधरी ने कहा है । (मरियाभस्स विमाणस्स चउदिसिं पंच पंच जोयणमयाई अबाहाए चनारि वणसंडा पणत्ता) मूर्याभविमान की चारों दिशाओं में पांच सौ छ तेम ४ा छ. (सोहामण वण्णओ सपरिवारो अरसे से भोमे मु, . पत्तेय पत्तेयं भद्दामणा पणत्ता) भी सपश्वर सिंहासनानु पनि सभा नये. तेभान मी रडता हरे ४२४ परिश्मा मद्रासन। ४वाय छ. (तेसिणं दाराण उत्तमागारामोलसविहेहिं रयणेहिं उबलोभिया-तं जहा रयणेहि जात्र रिट्रहि) से ४२वायाना उत्तभा॥२-४२वानी ५२ भागो तना रत्नाथी શોભિત છે. કર્કેતન વગેરે સામાન્ય રત્નોથી માંડીને રિસ્ટ સુધીના રત્નોનું વર્ણન मडी सभा सध्य. (तेमि ण दाराणं उपि अट्र मंगलगा. सज्झया जाय छत्ताइच्छत्ता) ते ४२पातमानी ५२ माउ मा मास तय! सहित यावत् छत्रातिरछत्रो छ. (एवमेव सपुवावरेण मरियाभे विमाणे चत्तारि दारसहस्सा भवति निमकग्वाय') मा प्रमाणे सूर्याभविमान या२ २ द्वारा छ, तेम तीर्थ ४२ तथा गधराव्ये युं छ. (मूरियाभस्म विमाणस्प्स चउदिसिं पंच पंच जोयणसयाई अवाहाए चत्तारि वण संडा पणना)
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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