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________________ सुबोधिनी टीका. सू. ६० सूर्याभविमानवर्णना : રૂ૮૩ तोरणानां पुरतो द्वैवज्रनाभ स्थाले प्रज्ञप्ते तानि बल अच्छत्रिच्छद्रितशालि. तण्डुलनखसंदष्ट प्रतिपूर्णानि इव तिष्ठन्ति । सर्वनाम्बूनदमयानि चावत् पतिरूपाणि महान्ति महान्ति रथचक्रवाललमानानि प्रजातानि श्रमणाऽऽयुप्मन्! । तेषां खलु तोरणानां पुरतो दे द्वे पायौ प्रज्ञप्ते, ताः खलु पात्र्यः अच्छो दकपरिहस्ताः नानामणिपञ्चवर्णैः फलहरितकैः बहुप्रतिपूर्णा इव तिष्ठन्ति, हो स्वभावतः अपनी निर्मलप्रभा से संयुक्त है. तथा-वृत्त उज्जवल होने से चन्द्रमण्डल के जैसे हैं। बहुत बड़े हैं । अतः हे श्रमण आयुष्मन् । आधे शरीर के बरावर कहे गहे हैं. (तेसि ण तोरणाण पुरा दो दो वइरनाभ . थाला पण्णत्ता, ' अच्छतिच्छडियसालितंदुलणहसंदिट्ठपडिपुण्णा , इव चिट्ठांति) इन तोरणों में से प्रत्येक तोरण के आगे दो दो वज्रनाभ स्थाल-जिसका मध्यभाग वज्ररत्न से नंटित हैं ऐसे थालपात्र विशेष-कहे गये हैं ये सब बननाभ स्थाल निर्मल-स्वच्छ ऐसे तीन बार छोटे गये -शोधे गये-शालितण्डुलों से प्रतिपूर्ण हुए है, पात्र की तरह से हैं (सत्रजंबूणयमया, जाव पडिरूवा, माया मईया रहचवालसमाणा ' पण्णत्ता समणाउसो) ये श्रमण ! आयुष्मन् ! ये लव बज्रनाभ स्थाल सर्वथा. जम्बूनद नामक स्वर्ण विशेष के बने हुए हैं। यावत् प्रतिरूप हैं तथा बहुत चंडे हैं और जैसा गोल रथ का चक्र होता है ऐसे कहे गये हैं। (तेसि ण तोरणाणं पुरओं दो दो पाईओ पण्णत्ताओ) इन तोरणों के आगे दो दो छोटे २ पात्र कहे गये हैं। (अच्छोदगपरिहत्थाओ णाणामणिपंचगणम्स फलछोयाए समणुबद्धा.चंदमंडलपडिणिगांसा, महया महया अद्धकायसमाणा पण्णता समपाउसो) ते पण घसायेद न लावा छांये स्वामावि रीत निमण પ્રિભાથી યુકત રહે છે તેમજ વૃત્ત ઉજવળ હવા બદલ ચંદ્ર મંડળ જેવાં લાગે છે. તે બહુ જ વિશાળ છે તેથી હે શ્રમણ આયુષ્યન! તેઓ અર્ધા શરીરની જેટલા डेवाय छ. (तेसिंणं तोरणाणं पुरओ दो दो वरनाम थाला पगत्ती, अच्छ. निच्छडियसालितंदलणहसंदिपडिपुण्णा इव चिट्ठांति) २ ताणमाथी દરેકે દરેક તોરણોની સામે બબ્બે વજીનાભસ્થાલ-કે જેમનો મધ્યભાગ વજરત્ન જટિત છે એવા થાલ-પાત્ર વિશેષ કહેવાય છે. આ સર્વે વનાભ સ્થાલે નિર્મળ –સ્વચ્છ ત્રણ વાર ખાંડીને સાફ કરેલા શાલિ તે ડુલેથી ભરેલા છે, અને પત્રની रेम छे. (सव्व जंबूणयमया, जात्र पडिरूवा, महया महया रहचकवाल समाणा पणत्ता समणाउसो) हे श्रम ! मायुप्मन् ! २५१ या नाम સ્થા સર્વાત્માના જંબૂનદ નામક સુવર્ણ વિશેષના બનેલા છે. યાવતુ પ્રતિરૂપ છે તેમજ બહુજ વિશાળ છે અને રથચકની જેવી ગોળ આકૃતિ વાળા उपाय छ. (तेसिं णं तोरणाण पुरओ दो दो पाईओ पणत्ताओ) 24. १५!
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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