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________________ ३२२ राजप्रश्शीयमुत्रे ऽवाचीनाऽऽयतः उदग्दक्षिणविस्तीर्णः अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थितः । अचिर्मा. लिभासराशिवर्णाभा असंख्येयाः योजनकोटाकोटी आयामविष्कम्भेन असंख्येयाः योजनकोटीकोटीः परिक्षेपेण अत्र खलु सौधर्माणां देवानां द्वात्रिंशद् विमाना. चासशतसहस्राणि भवन्ति, इति आख्यातम्। तानि खलु विमानानि सर्व रत्नमयानि अच्छानि यावत् प्रतिरूपाणि! तेषां खलु विमानानां बहुमध्यदेशभागे संकडों योजनों को, अनेक हजार योजनों को, अनेक लक्षयोजनों को अनेक करोड़ योजनों को, अनेक कोटी कोटि योजनों को, पार करके आगत स्थान पर सौधर्मकल्प कहा गया है (पाडीगपाईणपडीणायए उदीणदाहिण वित्थिन्ने, अद्धचंदसंठाण संठिए अच्चिमालिाखसरामि वण्णाभे) यह. सौधर्मकल्प पूर्वपश्चिमतकलम्बा है, उत्तर दक्षिणतकविस्तृत है अधचन्द्र के आकार जैसा इसका आकार है. किरणों के समूह से यह संपन्न है अतः यह धुति के समूह से संपन्न वर्ण के जैसा है (असंखेजामु जोयणकोडाफोडीओ आया. भविक्ख भेण असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेण एस्थण सोहमाणं देवाणं बत्तीस विमाणावाससयसहस्साई भवंतित्तिमक्खायं) यह असं. ख्यात कोटाकोटी योजन के आयाम-(लम्बाई) एवं विष्कम्भ (चौडाई) से युक्त है. तथा इसकी परिधि भी असंख्यात कोटीकोटीयोजन की है. इस मौधर्मकल्प में सौधर्मदेवों के ३२ लाख विमानावास (विमानरूपनिवास) हैं ऐसा कहा गया है. (तेणं विमाणा सच्चरयणामया अच्छ। जाव पडि. रूबा) ये सब विमान सर्वात्मना रन्नमय हैं, अच्छ-निर्मल हैं यावत् प्रतिरूप યજનો, અનેક કટિ કોટિ ચેજને પાર કરીને જે સ્થાન આવે તે સીધર્મકલ્પ કહેવાય છે. (पाडीणपाईणपडिणायए उदीणदाहिणवित्थिन्ने, अद्धचंदसंठाणसंठिए अच्चिमालिभासरासिवण्णाभे) ते सौरभ व पश्चिम सुधी दो छ. उत्तर દક્ષિણ સુધી તેને વિસ્તાર છે. અર્ધ ચન્દ્ર જેવી તેની આકૃતિ છે. કિરણેના સમૂसाथी ते संपन्न छ. मेथी ते धुतिना सभऽथी सपन्न परेको छ. . (असंखेजासु जोयणकोडाकोड़ीओ आयामविक्ख भेण असंखेज्जाओ जोयण कोडाकोडीश्री परिक्खेवेण एत्थण सोहम्माण देवाण' बत्तीस विमाणावाससयसहस्साई भवति ति मक्खाय) 0 मसण्यात टीटी यान જેટલા આયામ (લંબાઈ) અને વિખુંભ (પહોળાઈ) થી યુક્ત છે તેમજ તેની પરિધિપણ અસંખ્યાત કેટકિટી જનની છે. આ સૌધર્મકલ્પમાં સૌધર્મ દેવોના ૩૨ साम विमानावास (विमान ३५ निवास)छ म अपामा व्यु छ.. (तण विमाणा सबवर यणामया आच्छा जाव पडिरूवा) मा विभान सर्वात्मना-सपूर्ण
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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