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________________ सुबोधिनी टीका सू. ३३. सूर्याभस्थस मुद्घातकरणम् २४९ ऽन्तबहु समरमणीयदेशभागं विकरोति उल्लोकमक्षपाटकं चमणिपोठिकां च विकरोति तस्याः खलु मणिपीठिकाया. उपरि सिंहामनं सपरिवारं यावद् दामानि तिष्ठन्ति । सू० ३३ ।।. 'तएणं समणे भगवं' इत्यादि । टीका-'ततः-मर्याभदेवस्य दिव्यदेव(धुपदर्शनेच्छानिवेदनानन्तरम्, ग्चल श्रमणो भगवान् महावीरः सूर्याभेन देवेन एवम्-अनन्तरोक्त वचनम् उक्त:समरमणीय भूमिभाग को विकुर्वणा को. यहां पर पीछे का १५ वे मूत्र से लगाकर १९ वे मूत्रतक को 'मणोणं स्पर्शः ' तक का सब इस विषय का पाठ यावत् शब्द से गृहीत हुआ है। उस समतल भूमिभाग क ठीक मध्यभाग में फिर उसने प्रेक्षागृह मंडप की विकुर्वणा को. (अगख भमयसंनिविटुं वाओ अतो बहुसमरमणिज्ज भूमिभाग विउब्वइ. उल्लोयं अखाडगं च मणिपेढियं च विउन्बइ) यह प्रेक्षागृह मंडप अनेक स्तंभशत पर अवलम्बित था. इसका वर्णन पीछे किया जा चुका है. इस प्रेक्षा गृह मंडप के भीतर-मध्य में फिर उसने वहसमरमणीय भूमिभाग की विकुणा की फिर उसके कार के भाग को. मल्ल-क्रीडा स्थान की एवं मणिपीठिका की विकुणा की (नी से ण मणिपेढियाए उरि सीहासणं सपरिवारं जाव दामा चिट्ठति) उस मणिपीठिका के ऊपर फिर उसने सप. रिवार सिंहासन को विकुवंगा की यावत् पांच मालाओं की विकुवेणा की. । टीकार्थ-जब सूर्याभ देवने अपनी दिव्य देवद्धि आदि को दिखाने को इच्छा प्रकट की-तब उसके वाद-अर्थात् मर्याभदेव के द्वारा इस भां सूत्र सुधीन 'मणीनां स्पर्शः' सुधीनु वर्णन यावत् २०४थी गृहीत थयुत સમતળ ભૂમિ ભાગની બરાબર મધ્ય ભાગમાં તેણે પ્રેક્ષાગૃહ મંડપની વિદુર્વણુ કરી. (अणेगखंभस यसनिविट्ठ वणो अंनो बहु समरमणिज्नं भूमिभाग विउ. वई, उल्लोयं अक्खाडगं च मणिपेढियं च विउच्चइ) ते प्रेक्ष भ७५ ઘણું સેંકડો થાંભલાઓ ઉપર અવલંબિત હતા. આ પ્રેક્ષાગૃહ મંડપનું વર્ણન પહેલાં કરવામાં આવ્યું છે. એ પ્રેક્ષાગૃહ મંડપની અંદર વચ્ચે તેણે બહુ સમરમણીય ભૂમિ ભાગની વિદુર્વણ કરી, પછી તેના ઉપરિ ભાગતી, મલ–કીડાસ્થાનની અને મણિ. पानी विशु ४ी. (तीसे णं मणिपेढियाए उधर सीहासण सपरिवार जावदामा चिटुंति) ते भरा पानी उप२ त्या२ पछी तेणे सपरिवार सिडा‘સ ની વિમુર્વણું કરી યાવતું પાંચ માળાઓની વિકુણા કરી. . . . ટકાઈ— જ્યારે સૂર્યાભ દેવે પિતાની દિવ્ય દેવદ્ધિ વગેરેને બતાવવાની ઈચ્છા પ્રકટ કરી ત્યારે તે પછી એટલે કે સૂર્યાભ દેવ વડે આ પ્રમાણે કહેવાયા પછી તે
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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