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________________ सुबोधिनी टीका. सू. २६ भगवद्वन्दनार्थ मर्याभस्य गमनव्यवस्था 'तएणं से मरिया देवे' इत्यादि'--. टीका-ततः तदनन्तरं खलु सः-पूर्वोक्तः सूर्याभो देवः, तेन पूर्वोक्तन, पञ्चानीकपरिक्षिप्तेन-तत्र-पञ्चानीकानि यथा-पदात्यनोकम् १, अश्वानीकम्२, कुञ्जरानीकम्३, वृषभानीकम्, स्थानोकम्५, तैः पञ्चभिरनी केः-सैन्यैः परिक्षिप्त:-परिवेष्टितः, तेन 'महेन्द्रध्वजेने'-ति परेणान्वयः, पुनः कीदृशेन तेन ?-वज्रमयत्तलष्टसंस्थिनेन-बज्रायः--वनरत्नमयः, वृत्त:-चतुलश्च यो लष्टसंस्थितः-सुन्दरसंस्थानमम्पन्नस्तेन, यावत- -यावत्पदेन- -मुश्लिष्टपरिघृष्ट मृष्टसुपतिष्ठितेन विशिष्टेन अनेकवरपञ्चवर्णकुटमीसहस्रोच्छ्रिपरिमण्डिताभिरामेण वातोद्भतबिजय वैजयन्तीपताकाच्छनातिच्छत्रकलितेन तुङ्गेन गग- । ननलमनुलिखच्छिखरेण' इत्येतत्पदसञ्ज हो चोध्यः, योजनसहस्रोच्छूितेन महात्रय से होकर नीचे उतरे. (अवसेप्ता देवा य देशोओ य ताभो दिव्याओ जाणविमाणाओ दाहिणिल्लेण तिसोवाणपडिरूवरण पचोरूहंति) इसके बाद अशेष देव एवं देवियाँ उस दिव्य यान विमान से दक्षिण दिशा की ओर के सापानत्रय से होकर नीचे उतरे। टीकार्थ-इसके बाद पूर्वोक्त मूर्याभदेव उस पूर्वोक्त पदात्यनीरू, अश्वानीक, कुजरानीक, वृषभानीक एवं स्थानोक, इन पांच अनीकों से सैन्यों से परिवेष्टित हुआ सौधर्मकल्प के औतराह निर्याण मार्ग पर आया वह महेन्द्रध्वज वज्रमय था, वृत्त-चतुल-गोल था. एव आकार में लष्ट-सुन्दर था. यहां यावत् पद से इस महेन्द्रध्वन के 'सुश्लिष्ट परिपृष्ठ मृष्ट' आदि से लेकर 'गगनतलमनुलिखच्छि वर' तक के सब विशेषण गृहीत हुए हैं. यह महेन्द्रध्वज एक योजन तक की ऊँचाई वाला था. और इससे अबसेसा देवा य देवीओ य ताओ दिव्याओ जाण विमागाओ दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएण' पचोरुहंति) त्या२ ५छी unी २९सा हे आने वाय। તે દિવ્ય યાન વિમાનમાંથી દક્ષિણ દિશાની ત્રણ સીડીઓ ઉપર થઈને નીચે ઉતર્યા. ટીકાર્ય–ત્યાર પછી તે સૂર્યાભદેવ પદાયની (પાયદળસેના) અસ્થાનીક, (અશ્વसेना) हुशनी (हाथीसे11) वृषभानी भने २थानी (स्थसेना) से पांय मनीકેથી–સેનાઓથી-પરિવેષ્ટિત થયેલા મહેન્દ્રવજથી યુક્ત થયેલા સૌધર્મકલ્પના ઓતરાહ-નિર્માણ માર્ગ ઉપર આવ્યા તે મહેન્દ્ર ધ્વજ વજમય હતે, વૃત્ત-વર્તલ ગોળ इतो, मने मा२मा दट सुंदर इतो. माडी यावत् ५४थी भडन्द्रवता "सुश्लिष्ट परिघृष्ट मृष्ट वगेरेथी भान 'गगनतलमनुलिखच्छिखरः' सुधीना धा विशे-. ષણનું ગ્રહણ થયું છે. એ મહેન્દ્રધ્વજ એક જન સુધીની ઉંચાઈ વાળા હતા અને
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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