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________________ सुबोधिनी रोका. सू. १५ भगवन्दनार्थ सूभिस्य गमनव्यवस्था - लमिति वा मरमण्डलमिति वा आदर्शमण्डलमिति वा उरभ्रचर्मति वा वृषभ वर्मेति वा वराहचर्मेति वा सिंहचर्मेति वा व्याघ्रचर्मेति चा मृगचर्मेति वा छगलचर्मेति वा द्वोपिक चर्नेति वा अनेकशङ्कुकीलकसहस्रविततः नानाविधपञ्चवणः मणिभिः उपशोभितः आवर्तप्रत्यावर्त श्रणिप्रश्रेणियौवस्तिक वा सरतलेइ वा करतले वा चंदमंडलेइ वा) वह भूमिभाग एसा समतल था जैसा कि आलिगपुष्कर होता है, या मृदङ्ग पुष्कर होता है, या सरस्तल होता है, या करतल होता है, या चन्द्रमण्डल होता है. (मरमंडलेइ वा) या सूर्यमंडल होता है (आयसमंडलेशवा) या आदर्शमंडल (दर्पग) होता है, (उरभ चम्मेइ वा) या उरभ्रचर्म होता है (सहचम्मेइ वा)अथवा वृषभ चर्म होता है है, (वराहवम्मेइ वा) या वराह चर्म रोता है, (सीहचम्मेइ वा) या सिंह चर्म होता है, (ग्यवम्मेइ वा) व्याघ्रचर्म होता हैं, (मिगचम्मे। वा) या मृगवने होता है ( जात्रा ) वा छांगवी होता है (दीवियचम्मेइ वा) या दीपिवर्म होता है, (भोगसंकलमासस्मवितए) यह विशेषण उरभ्र चर्मादिकों का है. इसका तात्पर्य ऐमा किनिस प्रकार अनेक सहल शंकुममाण कीलको से ताडितहमा उरभ्रादि धर्म विस्त हो जाता है और समतल चाला बन जाता है-उसो कार से बालविमान का भीतर का भूमिभाग समतल या (णाणाविरोहिगी उबलोमिए) नाना प्रकार के -पंचवर्णों वाले मणिों से वह उपशोभित था (भावड पचावंड से देष से करतले वा चंदमंडलेड ) ते भूमिभाग मानतन समत तायो मालिश પુષ્કર હોય છે કે મૃદંગ સમતલ પુષ્કર હોય છે. કે સરસ્ત હોય છે, કે કરતલ હોય છે કે यद्रमा खाय छ. (मासलेड वा) सूर्यभान डाय छे. ( आयसमडलेइ वा) 3. माईश (मारिसा) भ डाय: छ, (उ०मचम्मेइवा), श्य मा डाय.. छ. (वसहचम्मेइ वा), वृषभ य स छ, (वराहचम्मेइ वा) पराड (सु). याय छ, (सीचा वास यम डाय छ, (वग्घचम्मेई वा) व्या यम हाय छ, (मिगम्मेवा) मृग यम य छ, (छगलचम्मेइ घा) 3 छ। यम डाय-छ, (दीवियचम्मेइ वा) दीपि यः सय छ, (अगसंकुकीलगसहस्सवितए) मा विशेष २७यम वगेरेनु छ. म.ना. म मा प्रमाणे થાય છે કે જેમ હજારેશકુ પ્રમાણ કીલકેથી તાડિત થયેલું ઉરભ્ર વિગેરેઢું ચર્મ વિસ્તૃત થઈ જાય છે અને સમતલવાળું થઈ જાય છે તેમજ યાનવિમાનની અંદર ભૂમિ ભાગ છે पा समतो तो: (णाणाविहपंचवण्णेहि मणीहि उवप्लोभिए) मने : dil पाय २ttvin मामा त यमितता. (आवडपञ्चावड सेढिपसेढिसोवस्थिय ।
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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